गणेश जी दूसरी कथा-
एक समय शंकरजी कैलाश छोड़कर पार्वती सहित नर्वदा के किनारे पहुंचे । वहां एक अत्यन्त रमणीक स्थान देखकर पार्वती ने शिवजी से कहा कि यहां आपके साथ चौपड़ खेलने की मेरी इच्छा है। शिवजी ने कहा कि हम तुम तो खेलनेवाले हुए, परन्तु हार-जीत का साक्षो भी तो कोई होना चाहिए ।
पार्वती ने पास में पड़े घास के तिनकों से मनुष्य का आकृति का बनाकर उसे सजीव कर दिया और उससे कहा - "बेटा ! हम दोनों पासा खेलते हैं। तुम हमारी जय-पराजय के साक्षी होकर खेल के अन्त में बतलाना कि हम दोनों में से किसकी जीत हुई ?" खेल में पार्वती की तीन बार विजय हुई और शंकर तीनों बार हारे । परन्तु अन्त में जब बालक से पूछा गया तब उसने शिवजी की जीत और पार्वती की हार वताई। उसकी इस दुष्टता पर कुपित होकर पार्वतीजी ने उसे शाप दिया कि तूने सत्य बात के कहने में प्रमाद किया । इस कारण तू एक पैर से लंगड़ा होगा और सदैव यहां इस कीच में पड़ा रहकर दुःख पाता रहेगा । माता के शाप को सुनकर बालक ने प्रार्थना की कि मैंने कुटिलता से ऐसा नहीं किया । केवल बालकपन से ऐसा किया है। अतः मैं सर्वथा क्षन्तव्य हूं । तब पार्वती ने दयालु होकर कहा कि जब इस नदी-तट पर नाग-कन्याएं गणेश-पूजन करने आयेंगी, तव तू उनके उपदेश से गणेश-व्रत करके मुझको प्राप्त करेगा । यह कहकर पार्वतीजी हिमालय की ओर चली गईं। एक वर्ष व्यतीत होने पर नाग-कन्यायें गणेशजी का पूजन करने के लिए नर्वदा-तट पर गईं। उस समय श्रावण का महीना था। नाग-कन्याओं ने स्वयं गणेश-व्रत किया और उस बालक को भी पूजा की विधि बताई। नाग-कन्याओं के चले जाने पर जव उस बालक ने इक्कीस दिन पर्यन्त गणेश-व्रत किया, तव गणेशजी ने प्रगट होकर कहा कि मैं तुम्हारे व्रत से अत्यन्त संतुष्ट हुआ हूं। अतः जो इच्छा हो सो वर मांगो । यह सुनकर वालक ने कहा कि मेरे पांव में शक्ति आ जाय जिससे मैं कैलाश पर चला जाऊँ और वहां माता-पिता मुझ पर प्रसन्न हो जायं । बस यही वरदान मांगता हूं ।
गणेशजी बालक की प्रार्थना सुनकर और 'तथास्तु' कहकर अन्तर्द्धान हो गये। बालक शीघ्र ही कैलाश परप हुंचकर शिवजी के चरणों पर जा गिरा । महादेवजी ने पूछा कि त्रिलोचन ! तूने ऐसा क्या उपाय किया जिससे
पार्वती के शाप से मुक्त होकर यहां तक आ पहुंचा ? यदि इस प्रकार का कोई व्रत हो तो मुझे भी बतला जिसे करके मैं भी पार्वती को प्राप्त करूँ । क्योंकि पार्वती उस दिन क्रुद्ध होकर चली गई। तब से आज तक मेरे समीप नहीं आई ।
त्रिलोचन की बताई विधि से महादेवजी ने इक्कीस दिन तक गणेश-व्रत किया, जिससे पार्वती के अन्तःकरण में आपही शिवजी से मिलने की उत्कंठा हुई । अतः वे अपने पिता हिमालय से विमान का प्रवन्ध कराकर शीघ्र ही शिवजी से आ मिलीं। उन्होंने शिवजी से पूछा कि आपने क्या ऐसा उपाय किया, जिससे मुझको आपसे मिलने की प्रेरणा उत्पन्न हुई ? तव शिवजी ने त्रिलोचन के कहे हुए व्रत को बतलाया ।
अपने पुत्र षडानन (स्वामिकार्तिक) से मिलने के लिए जब पार्वती ने २१ दिन तक प्रतिदिन २१ दूर्वा, २१ पुष्प और २१ लड्डुओं से गणेश-पूजन किया, तब इक्सीसवें दिन स्वामिकार्तिक आप ही पार्वती से आ मिले । स्वामिकार्तिक ने भी जब माता के मुख से सुनकर यह व्रत किया, तब उन्होंने समस्त सेनानियों की प्रमुखता का महत्त्वपूर्ण पद पाया । यही व्रत स्वामिकार्तिक ने अपने मित्र विश्वामित्र को भी बताया । विश्वा-मित्र ने जब यह व्रत किया तब गणेशजी प्रकट हुए और बोले कि वर मांगो । विश्वामित्र ने यह वर मांगा कि मैं इसी जन्म में इसी शरीर से ब्रह्मर्षि हो जाऊँ । गणेशजी ने वरदान देकर उनकी इच्छा भी पूर्ण की।
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