समाजवाद का जन्म कैसे हुआ? आओ इतिहास में झांके। जो चीजे आज जितनी सरल है उनको व्यवहार में लाने में लोगों को कितना संघर्ष करना पड़ा। एक झलक समाजवाद की...
यूटोपियाई समाजवाद-न्याय की तलाश
अंग्रेज टामस मूर (१४७८-१५३५) को यूटोपियाई समाजवाद का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने 'यूटो-पिया' नामक एक पुस्तक लिखी थी और १६वीं-१६वीं सदियों के इस प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक विचारों और सिद्धांतों ने यूटोपियाई समाजवाद का नाम इसी पुस्तक से पाया।
समाजवाद के विचार लोगों को लंबे अर्से से ज्ञात हैं। वे न्यायपूर्ण समाज के बारे में स्वप्न के रूप में कल्पना के रूप में उत्पन्न हुए, लेकिन लंबे समय तक बने रहे। अनेक देशों में उनके उत्कट प्रशंसक और हिमायती थे। १६वीं सदी के मध्य में समाजवाद के विचारों को वैज्ञानिक आधार मिला और उनका नया जीवन-परिपक्वता, सारी दुनिया में प्रसार और मुख्यतः यथार्थता में, करोड़ों-करोड़ लोगों के व्यावहारिक सामाजिक संघर्ष में उनके मूर्तीकरण का काल -आरंभ हुआ। वैज्ञानिक कम्युनिज्म के नाम से सुविदित इस सिद्धांत को समझने के लिए उसकी उत्पत्ति और विकास के इतिहास का अध्ययन करना आवश्यक है।
प्रत्येक नया विज्ञान शून्य से नहीं उत्पन्न होता, बल्कि वह तो अपने पूर्ववर्ती सिद्धांतों पर आधारित होता है। वह जितना अधिक अर्थपूर्ण होगा, उतने ही अधिक गहन ढंग से अपने पूर्ववर्ती चिंतकों की उपलब्धियों को आत्मसात और परिष्कृत करेगा। अतः वैज्ञानिक कम्युनिज्म के सिद्धांत के पहले यूटोपियाई समाजवाद के विचार विद्यमान थे और उनसे परिचय से वैज्ञानिक सिद्धांत को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। वह दिखाता है कि विभिन्न देशों के प्रगति-शील चिंतक और जनगण सामाजिक समानता, श्रम की सार्वभौमिकता, व्यक्ति के प्रति आदर और सुचिंता के सिद्धांतों पर आधारित न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए लंबे अर्से से लालायित थे। उनकी यह ललक यूटोपियाई समाजवाद में साकार हुई, जिसका एक दिलचस्प और नाटकीय इतिहास है।
पहले समाजवादी क्या स्वप्न देखते थे ?
अंग्रेज टामस मूर (१४७८-१५३५) को यूटोपियाई समाजवाद का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने 'यूटो-पिया' नामक एक पुस्तक लिखी थी और १६वीं-१६वीं सदियों के इस प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक विचारों और सिद्धांतों ने यूटोपियाई समाजवाद का नाम इसी पुस्तक से पाया।
'यूटोपिया' एक समुद्रयात्री की दूरस्थ सुखद द्वीप की यात्रा का विवरण है। पुस्तक के पहले भाग में मूर इंगलैंड में कायम तत्कालीन व्यवस्थाओं -अमीरों द्वारा गरीबों के निर्मम शोषण, अमीरों की धनलोलुपता और अनैतिकता की तीव्र आलोचना करते हैं। इसके बाद वह दूरस्थ द्वीप पर एक सर्वथा भिन्न, बढ़िया जीवन का वर्णन करते हैं। उस द्वीप के बड़े और सुंदर नगरों की रूपसज्जा एक जैसी है और उनके स्वतंत्र तथा समानाधिकारपूर्ण नागरिकों को एक ही जीवन पद्धति प्राप्त है। द्वीप पर नगरों के अलावा फ़ार्म भी हैं और नागरिक नगरों में भी तथा फ़ार्मों पर भी रहते हैं एवं बारी-बारी से विभिन्न प्रकार के श्रम करते हैं। केवल वैज्ञानिक ही शारीरिक श्रम से मुक्त रखे जाते हैं।
द्वीप पर परजीवी नहीं हैं। सभी लोग दिन में छः घंटे काम करते हैं। अतः प्रत्येक आदमी के पास वैज्ञानिक और कलात्मक कार्यों के लिए काफ़ी समय रहता है। इस राज्य में मुद्रा का अस्तित्व नहीं है और लोग सोने की पूजा नहीं करते। वह सब कुछ, जिसका उत्पादन किया जाता है, सार्वजनिक गोदामों में रखा जाता है, जहां से हरेक आदमी उतना ही लेता है, जितने की उसे जरूरत होती है। किसी भी नागरिक को व्यक्तिगत भंडार बनाने की इच्छा नहीं होती, क्योंकि इनकी किसी को जरूरत ही नहीं। द्वीप पर आवश्यकतानुसार निःशुल्क वितरण व्यवस्था कायम है। वह कैसे संभव हुई? मूर इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं। एक, सभी चीजों का बाहुल्य है, और दो, ऐसी आशंका नहीं हो सकती कि कोई व्यक्ति उससे अधिक मांगने की इच्छा रखता है जितना कि उसे जरूरी है। जो व्यक्ति इस बात से आश्वस्त है कि उसे कभी किसी
चीज का अभाव नहीं होगा, वह भला उस चीज को क्यों मांगेगा, जिसकी वस्तुतः उसे आवश्यकता ही नहीं। द्वीप के सभी निवासी सार्वजनिक भोजनालयों में खाना खाते हैं। प्रत्येक नागरिक की आवश्यकताएं सर्वाधिक स्वाभाविक हैं।
इस राज्य में सभी समान हैं, निवासियों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि देश का संचालन करते हैं।
टामस मूर की पुस्तक तत्कालीन ब्रिटिश समाज के लिए एक चुनौती थी, जहां लोग अमीरों और गरीबों, एक ओर, दरिद्रों और अधिकारविहीनों, तथा दूसरी ओर, ठाठ-बाट वालों और स्वेच्छाचारियों में बंटे हुए थे।
टामस मूर के जीवन का दुःखद अंत हुआ राजा के आदेश से उन्हें फांसी दे दी गयी।
बहुत-से अन्य यूटोपियाई समाजवादियों का जीवन भी कठिन और दुःखद था। उनमें थे तोम्माजो काम्पाने-ला, जेरार्ड विन्सतान्ली जान मेलिये, गेब्रियल मैब्ली, ग्राक्ख बब्योफ़, आंरी सेंट-सिमोन, शार्ल फुरिये, रॉबर्ट ओवेन, विसारिओन बेलीन्स्की, अलेक्सांद्र हर्जेन और निकोलाई चेर्निशेव्स्की। वे विभिन्न ऐतिहासिक युगों में रहे और विभिन्न राष्ट्रीयताओं के थे। पर वे सभी बड़े ही उत्कट ढंग से एक ऐसे समाज की स्थापना करने के बारे में स्वप्न देखा करते थे, जहां श्रम के फल स्वयं श्रमिकों के होंगे, जहां मनुष्य मनुष्य का शोषण नहीं करेंगे, जहां वर्ग, सामाजिक संस्तर और जातीय बाधाओं को मिटा दिया जायेगा, जहां सभी समान होंगे। उन्होंने बड़े कष्ट उठाते हुए नये, सुखद जीवन के मार्ग ढूंढ़े, सामाजिक अन्याय, असमानता, गरीबी और अधिकारहीनता का खात्मा करने के लिए लोगों का आह्वान किया। लेकिन इसके लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। शासक वर्गों ने इन मानवतावादी चिंतकों को यातनाएं दीं, उन्हें निर्वासित किया, जेलों में बंद कर दिया और कभी-कभी उनके जैसे कि टामस मूर के जीवन का भी अंत कर दिया ।
इनमें से तीन चिंतकों फांसीसी आंरी सेंट-सिमोन और शार्ल फुरिये तथा अंग्रेज रॉबर्ट ओवेन के सिद्धांत सुज्ञात हैं। उन्हें क्यों समाजवादी विचार के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है?
१८वीं सदी के अंत में फांस में बुर्जुआ क्रांति हुई। सामंती वर्ग के स्थान पर एक नया वर्ग बुर्जुआ वर्ग -आया। उस समय के फ्रांसीसी चिंतकों ने इस क्रांति पर बड़ी आशाएं लगा रखी थीं। उन्होंने सोचा था कि वह सामंतों और चर्च के शासन के युग का, अन्याय, अज्ञान और अंधविश्वास के युग का अंत कर देगी। उन्होंने आशा की थी कि अब ऐसे सूर्य का उदय होगा, जिसकी उज्ज्वल किरणों तले धरती पर शाश्वत न्याय, समानता और सभी लोगों के बीच बंधुत्व की विजय होगी। परंतु जीवन ने बहुत जल्द ही दिखा दिया कि तर्कबुद्धि और न्याय के जिस राज्य की आशा की गयी थी वह मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण और दासकरण के एक नये रूप में बदल गया, कुछ लोगों की अमीरी तथा ठाठ-बाट और बढ़ गये जबकि अन्य लोग और कंगाल तथा अधिकारहीन हो गये। नयी, पूंजीवादी प्रणाली की बुराइयों की तुलना में सामंती प्रणाली की बुराइयां भी फीकी पड़ गयीं।
इस बीच में पूंजीवाद यूरोप में अपनी स्थिति अधिकाधिक मज़बूत बना करके अन्य महाद्वीपों पर औपनिवेशिक विजयें प्राप्त करने लगा। सर्वत्र पूंजीवाद और उपनिवेशवाद अपना अमानवीय और अंतर्विरोधी स्वरूप प्रकट करते हुए लोगों पर नयी-नयी मुसीबतें ढाहने लगे।
बेहतर जीवन के आगमन में विश्वास करनेवाले लोग कटु निराशा में डूब गये। कुछ ऐसे लोग प्रकट हुए जिन्होंने बुर्जुआ प्रणाली की तीव्र आलोचना की तथा एक दूसरे, उनके ख्याल में अधिक न्यायपूर्ण और मानवीय समाज का अपना मॉडल पेश किया।
उस समय मानव बुद्धि नयी सफलताएं हासिल कर रही थी: वैज्ञानिक प्रकृति के रहस्यों में अधिकाधिक पैठ रहे थे तथा आश्चर्यजनक रूप से शक्तिशाली और संजटिल मशीनें, खरादें व कल-पुर्जे बना रहे थे। क्यों लोग बुद्धि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शक्ति की सहायता से अपने जीवन का कायापलट नहीं कर सकते ? क्या दूर भविष्य के बजाय अभी ही खुशहाली से भरे समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता ? ऐसे ही सेंट-सिमोन, फुरिये और ओवेन ने प्रश्न पेश किये और अपने-अपने ढंग से उनके उत्तर दिये।
आंरी सेंट-सिमोन (१७६०-१८२५) का जन्म पेरिस में एक काउंट के परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने
जमाने की प्रमुख घटनाओं अमरीकी स्वातंत्र्य युद्ध (१७७५-१७८३) और फ्रांसीसी बुर्जुआ क्रांति (१७८६-१७६४) - में हिस्सा लिया था। अपने जीवन के अधि-कांश भाग में वह साहित्यिक सृजन में लगे रहे और घोर निर्धनता का जीवन बिताया।
सेंट-सिमोन के मतानुसार, मानवजाति अपने विकास की तीन अवस्थाओं से गुजरी है। पहली अवस्था में धर्म का एकच्छत्र राज था, दूसरी अवस्था में धर्म और विज्ञान के बीच संघर्ष चला और तीसरी अवस्था में विज्ञान की विजय हुई। चूंकि अंतिम अवधि आरंभहो रही थी, इसलिए एक विशेष सामाजिक विज्ञान की स्थापना करके उसकी मदद से मानव जीवन को बदलना आवश्यक हो गया था। इसका मुख्य कार्य एक सुखमय समाज का मॉडल तैयार करना था ताकि उसे फिर अमली जामा पहनाया जाये।
सेंट-सिमोन की राय में, इस मॉडल की तैयारी युग विशेष और ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती। यह तो एक मेधावी पुरुष के प्रयासों का फल होती है। अगर ऐसा मेधावी पुरुष पांच सौ साल पहले प्रकट हुआ होता, तो मानवजाति युग-युगों के कष्ट-मुसीबतों से बच गयी होती। लेकिन उस समय तक ऐसा कोई मुक्तिदाता नहीं था। अतः नये जीवन का मॉडल तैयार करके अब मानवजाति को तुरंत मुक्त करना आवश्यक हो गया था।
सेंट-सिमोन की भावी समाज की कल्पना क्या थी ?
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