अनंत चतुर्दशी व्रतकथा क्या है? और यह कब मनाई जाती है?

अनंत चतुर्दशी व्रतकथा क्या है? और यह कब मनाई जाती है?
अनंत चतुर्दशी का व्रत भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता हैं। इस दिन भगवान नारायण की कथा की जाती है। इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके भक्तगण वेद-ग्रंथों का पाठ करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्रबांधा जाता हैं।
अनंत चतुर्दशी का व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है। 
 अनंत चतुर्दशी व्रतकथा क्या है?
पोराणिक कथाके अनुशार एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूययज्ञ किया। यज्ञमंडप का निर्माण अति सुंदर था ही. अद्भुत भी था। उसमें जल में स्थल तथा स्थल में जल की भ्रांति उत्पन्न होती थी। पूरी सावधानी के बाद भी बहुत से अतिथि उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे। दुर्योधन भी उस यज्ञमंडप में घूमते हुए स्थल के भ्रम में एक तालाब में गिर गए।
तब भीमसेन तथा द्रौपदी ने 'अंधों की संतान अंधी' कहकर दुर्योधन का मजाक उड़ाया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। उसके मन में द्वेष पैदा हो गया और मस्तिक में उस अपमान का बदला लेने के विचार उपजने लगे। काफी दिनों तक वह इसी उल्झन में रहा कि आखिर पाँडवों से अपने अपमान का बदला किस प्रकार लिया
जाए। तभी उसके मस्तिष्क में यूत क्रीड़ा में पॉडवों को हराकर उस अपमान का बदला लेने की युक्ति आई। उसने पाँडवों को जुए के लिए न केवल आमंत्रित ही किया बल्कि उन्हें जुए में पराजित भी कर दिया।
पराजित होकर पाँडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पाँडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन वन में युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से अपना दुःख कहा तथा उसको दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो। इससे तुम्हारे सारे संकट दूर हो जाएगा। तुम्हें हारा हुआ राज्य भी वापस मिल जाएगा।
युधिष्ठिर के आग्रह पर इस संदर्भ में श्रीकृष्ण एक कथा सुनाते हुए बोले- प्राचीन काल में सुमन्तु ब्राह्मण की परम सुंदरी तथा धर्मपरायण सुशीला नामक कन्या थी। विवाह योग्य होने पर ब्राह्मण ने उसका विवाह कौडिन्य ऋषि से कर दिया। कौडिन्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चले तो रास्ते में ही रात हो गई। वे एक नदी के तट पर संध्या करने लगे।

सुशीला ने देखा वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुंदर-सुंदर वस्त्र धारण करके किसी देवता की पूजा कर रही हैं। उत्सुकतावश सुशीला ने उनसे उस पूजन के विषय में पूछा तो उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बता दी। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान करके चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बाँधा और अपने पति के पास आ गई। कौडिन्य ऋषि ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात स्पष्ट कर दी। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौडिन्य ऋषि को इससे कोई प्रसन्नता नहीं हुई, बल्कि क्रोध में आकर उन्होंने उसके हाथ में बंधे डोरे को तोड़कर आग में जला दिया।
यह अनंतजी का घोर अपमान था। उनके इस दुष्कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। कौडिन्य मुनि दुःखी रहने लगे।
उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का कारण पूछने पर सुशीला ने डोरे जलाने की बात दोहराई। तब पश्चाताप करते हुए ऋषि 'अनंत' की प्राप्ति के लिए वन में निकल गए।
जब वे भटकते-भटकले निराश होकर गिर पड़े तो भगवान अनंत प्रकट होकर बोले- 'हे कौडिन्य! मेरे तिरस्कार के कारण ही तुम दुःखी हुए हो लेकिन तुमने पश्चाताप किया है, अतः मैं प्रसन्न हूँ। पर घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जाएगा। तुम्हें अनंत सम्पत्ति मिलेगी।
कौडिन्य ऋषि ने वैसा ही किया। उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी भगवान अनंत का व्रत किया जिसके प्रभाव से पाँडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक निष्कंटक राज्य करते रहे।

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