आदिकवि वाल्मीकि

आदि कवि वाल्मीकि...

उलटा नाम जपत जग जाना। 

वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।

रामायण की रचना आदि कवि बाल्मीकि ने की है। त्रेतायुग में ऋषि-मुनि प्रायः वनों में रहते थे । उसी युग में वाल्मीकि मुनि का जन्म हुआ था और उन्होंने ही रामायण महाकाव्य ग्रन्थ की रचना की।

महर्षि वाल्मीकि के जीवन वृत्त का परिचय कुछ इसप्रकार है। रामायण की रचना के बहुत पूर्व वाल्मोकि रत्नाकर नाम के एक दस्यु थे। वह अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण वन में निरीह पथिकों की हत्या करके, उनके सामान लूटकर करते थे। उन्होंने जितना जघन्य पाप कर्म किया उसकी कोई गणना नहीं। अन्त में जब रत्नाकर का अत्या-चार पराकाष्ठा पर पहुंच गया तो ब्रह्मा और नारद गृहस्थ ब्राह्मण का छद्म वेश बनाकर रत्नाकर के समक्ष उपस्थित हुए। रत्नाकर उन्हीं का वध करने को उद्यत हो गए। ब्रह्मा ने रत्नाकर से कहा-"हे भाई ! तुम जो यह निरीह नर हत्या कर रहे हो उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा, कभी विचार किया? इतने पाप का फल तुम अकेले कैसे भोग सकोगे ?" रत्नाकर ने कहा 'हम अकेले ही क्यों भोग करेंगे। इसका भोग तो कुटुम्ब के सभी लोगों को करना होगा।" ब्रह्मा ने हँसकर कहा- "ऐसा भी कभी हो सकता है ? ये जो जो पाप कर्म तुम कर रहे हो उनका पूरा फल तुम्हीं को भोगना पड़ेगा।" रत्नाकर क्रोधित हो उठे और बोले "ऐसा कदापि नहीं होगा। कुटुम्ब के प्रत्येक सदस्य को उसका फल भोगना ही होगा।" ब्रह्मा ने कहा- "यह सम्भव नहीं जान पड़ता। अच्छा ! तुम जाकर - अपने घर के प्रत्येक प्राणी से पूछ आओ कि वे क्या तुम्हारे दुष्कर्मों के फल के भागी बनेंगे ?" रत्नाकर ने कहा- "हम घर पूछने जाएं और तुम अपने प्राण बचाकर भाग जाओ तो। ब्रह्मा ने कहा- "जब तुमको इतना भी मेरा विश्वास नहीं है तो तुम हमको वृक्ष में बाँध कर चले जाओ । घर से पूछ कर आओ और यदि तुम्हारी ही बात सत्य हो तो तुम हम लोगों की हत्या कर डालना"। यह युक्ति रत्नाकर को बहुत अच्छी लगी। रत्नाकर दोनों मुनियों को एक पेड़ में बाँध कर घर गया। घर जाकर माता, पिता पुत्र इत्यादि सभी कुटु म्बियों से पूछा-जिस तरह हम पाप कर्म करके धन लाते हैं ओर तुम लोगों का भरण पोषण करते हैं, क्या उस पाप के भागी तुम लोग भी बनोगे या नहीं?" घर के सभी सदस्यों ने रत्नाकर को साफ उत्तर दिया कि "हम लोगों का पालन-पोषण करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। अपने कर्त्तव्य (कर्म) का फल तुम स्वयं भोगो । हमसे उससे क्या लेना-देना ।"


परिवार के किसी भी सदस्य ने फल भोगना स्वीकार नहीं किया। यह उत्तर पाकर रत्नाकर को बड़ा ही शोक और संताप हुआ। अपने पाप कर्मों की चिन्ता करते हुये ब्रह्मा के पास आकर उनके पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा। "आप निश्वय कोई महापुरुप हैं। आपने यदि मुझ पर इतनी दया की है तो आप मेरा मुक्ति का भी कोई साधन बता दाजिये, नहीं तो मेरा कल्याण नहीं होगा।"


ब्रह्मा ने कहा - "धैर्य धरो, कुछ भय नहीं, तुम अपनी मुक्ति हेतु राम नाम का जप करो, इसी से तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जायगे।" रत्नाकर ने उसी समय राम नाम जप करना आरम्भ कर दिया। किन्तु उन्होंने इतनी नर हत्या की थी कि उनके मुख से राम नाम शब्द निकल ही नहीं पाता था ? पापी के मुख से पवित्र राम नाम जल्दी निकलेगा भी कैसे ? ब्रह्मा ने उनको उपदेश देते हुए कहा- "अच्छा तुम मरा मरा जपना आरम्भ करो, ऐसा करते करते अन्त में तुम्हारे मुख से राम राम का उच्चारण होने लगेगा।"


ऐसा कह कर ब्रह्मा अन्तर्ध्यान हो गए। इस घटना के पश्चात रत्नाकर घर नहीं गये। वहीं पर राम नाम का निरन्तर जप करने लगे। जप करने में इतने लीन हो गए कि उनका बाहरी ज्ञान क्या, अपनी शरीर की भी सुधबुध न रही। उनके सिर की जटा इतनी लम्बी हो गयी कि उस पर दीमक (बल्मक) का पहाड़ जैसा ढेर लग गया। इस घोर तपस्या करने से वे डाकू रत्नाकर से ऋषि बाल्मीकि हो गए। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-उलटा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।


तब से वे महर्षि वाल्मीकि बोले जाने लगे। ऋषित्व लाभकरने के बाद एक दिन वाल्मीकि नदी में स्नान करने जा रहे थे। नदी के किनारे उन्होने दो पक्षियों का एक जोड़ा काम मोहित भाव में देखा कुछ दूर से एक व्याघ ने पक्षी के जोड़ में से एक का अपने तीर से बध कर दिया। एक के मर जाने के बाद दूसरा पक्षी शोकार्त होकर विलाप करने लगा। सहसा पक्षी के विलाप से दुखित होकर महर्षि वाल्मीकि व्याध को श्राप दे बैठे। उस समय शोकाकूल अवस्था में महर्षि वाल्मीकि की वाणो से वही श्लोक प्रस्फुटित हुआ-


आपने मुझे निषाद के रूप में स्थापित किया है और आप सास्वती के समान हैं। जो क्रौंचों के जोड़े से एक काल तक काम द्वारा मोहित रहता है।


व्याध को श्राप देने के बाद वाल्मीकि को अति ग्लानि हुई। हाय ! यह मैंने बया अनर्थ कर डाला! शोकावस्था में संस्कृत भाषा में काव्य रूप में सर्व प्रथम जो वाणी मुखरित हुई उसका ही नाम हुआ - काव्य ।


वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान । उमड़ कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।

कवि-कुल-गुरु कालिदास लिखते हैं-


'निषाद‌विद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत तस्य शोकः ।,


निषाद के वाण से विद्ध पक्षी के दर्शन से जिसका (महर्षि वाल्मीक का) शोक श्लोक में परिणत हो गया। वह श्लोक यह है-


मा निषाद प्रतिष्ठांत्वमगमः शाश्वतीः समा । यत्क्रौंच मिथुनादेक मबधीः काम मोहितम् ।।


हे निषाद तू किसी काल में प्रतिष्ठा न पा सकेगा। तू ने व्यर्थ काम मोहित दो क्रौंचों में से एक को मार डाला ।


वाल्मीक रामायण में लिखा है कि यही पहला आदिम पद्य है, जिसके आधार से उसकी रचना हुई । वाल्मीक रामायण ही संस्कृत का पहला पद्य-ग्रंथ है। और उसका आधार करुण रस का उक्त श्लोक ही है। अतएव यह माना जाता है है कि कविता का आरंभ करुण रस से ही हुआ है।


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