लकीर का फकीर...उस बहू के जैसा आप भी तर्कशील होकर सोंचे! बनें! और करें! आइए इस एक कहानी के माध्यम से देखें!
किसी परंपरा की शुरुआत कैसे होती है और आने वाली नई पीढ़ी इसको अंगीकार कैसे कर लेती है, इसका भी अहसास होगा।
एक गांव में एक दंपती (पति-पत्नी) निवास करते थे, परंतु दोनों की आंखों में ज्योति नहीं थी। अंधे होने की वजह से बहुत ही मुश्किल से दोनों अपना जीवन-यापन चला पाते थे। एक समय की बात है कि, अंधी पत्नी घर के आंगन में बने चूल्हे पर रोटी बना रही थी और बगल में उसके पति महोदय बैठे हुए थे। आपस में दोनों अपनी जिंदगी के सुख-दुःख की बातें करते हुए, उदर की ज्वाला शांत करने हेतु पत्नी रोटी बनाये जा रही थी। लेकिन इन दोनों को आंखों से दिखाई न देने के कारण एक चतुर बिल्ली बगल में बैठकर बनने वाली रोटी पर नजर टिकाये हुए थी। परंतु ज्योतिविहीन होने के कारण वे दंपती बिल्ली की गतिविधि को देख नहीं सकते थे और जब देख नहीं सकते थे तो उस बिल्ली से सचेत होने या उस बिल्ली को भगा सकने की बात भी नहीं सोच सकते थे। जब रोटियां बननी समाप्त हो गयीं तो पत्नी ने अपनी बनी बनायी रोटियों को इकट्ठा करते हुए रोटी रखने वाले डब्बे में रखने लगी, तभी उसे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे द्वारा बनायी गई सारी रोटियां तो है ही नहीं! तत्काल वह बगल में बैठे अपने पति महोदय से पूछ बैठी कि अजी सुनते हो, आपने यहां से कहीं रोटी हटाई तो नहीं है? पति महोदय भी अचंभित होकर बोले, नही तो! मैं तो रोटी छुआ भी नहीं हूं!
पति-पत्नी दोनों काफी चिंतित हो गए। पत्नी बोली-आखिर रोटियां तो मैंने बनाई थी लेकिन वे रोटियां गयी कहां? बहुत सोचने-विचारने के
बाद दोनों एक निष्कर्ष पर पहुंचे कि रोटियों को कहीं पास बैठा कोई शैतान बच्चा छिपा दिया होगा या कोई जानवर या बिल्ली ले गयी होगी! हम दोनों आंख से अंधे जो ठहरे इस वजह से हम दोनों को पता भी नहीं चला। उस रात को दोनों भूखे पेट सिर्फ जल पीकर ही अपने बिस्तर पर सोने चले गए, लेकिन बिस्तर पर जाकर वे फिर से इस विषय पर काफी चर्चा और चिंतन करने लगे। चिंतन के अंत में एक निष्कर्ष पर पहुंचे कि कल से जब भी तुम रोटियां बनाओगी तो मैं पास में बैठकर एक बांस का फटका (लाठी) लेकर जमीन पर पटकता रहूंगा ताकि अगर किसी जानवर या बिल्ली की ये हरकत होगी तो वह बिल्ली या जानवर पास नहीं आएगा और अपनी बनी-बनायी रोटियां भी सुरक्षित बची रहेंगी।
प्रातःकालीन नित्यकर्मों से निवृत्त होने के बाद उसकी पत्नी उसी आंगन में बने चूल्हे पर पुनः खाना बनाने बैठ गयी और रात्रि में तय कार्यक्रम के अनुसार उसका पति भी बगल में बैठकर एक बांस का फटका लेकर जमीन पर पीटने लगा। सच में यह तरीका काफी सफल सिद्ध हुआ, क्योकि आज का बना भोजन सही सलामत रूप से बचा हुआ मिला। कोई भी जानवर उसके द्वारा बनाई गई रोटियों को इस बार नहीं ले गया। दोनों ने अपने द्वारा निर्मित भोजन को ग्रहण करते हुए अपने नित्य की दिनचर्या हेतु घर से निकल गये। संध्या को जब दोनों घर वापस आये तो सभी नित्यक्रिया से निवृत्त होकर उसकी पत्नी खाना बनाने बैठी और उसका पति उसके बगल में बैठकर बांस का फटका पुनः जमीन पर पीटने लगा। रात्रि भोजन के पश्चात दोनों बिस्तर पर चले गए। लेकिन यह बांस का फटका पटकने के सफल प्रयोग को प्रतिदिन करने हेतु आपस में प्रतिबद्ध हो गए। शनैः-शनैः भोजन बनाने के समय बांस पटकने वाली प्रक्रिया अब एक दिनचर्या में बदल गयी।
आगे उसी अंधे दंपती (पति-पत्नी) को एक सुन्दर से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। वह पुत्र उसी आंगन में खेलकर माता-पिता के स्नेह और प्यार में बड़ा हो रहा था और उस फटका मारने की परंपरा को भी देखता आ रहा था। बच्चा आंख से अंधा नहीं था इस वजह से अपने घर में हो रहे सभी रीति-रिवाज को गौर से देखते हुए बड़ा हुआ। जब किसी काम से
उसके पिताजी कहीं चले जाते थे और उसकी माताजी खाना बनाती थीं तब उसकी मां अपने बच्चे को ही फटका मारने हेतु आवाज लगाती थी। बच्चा भी सुशील था, इस वजह से अपनी मां की कही बात को मानते हुए चूल्हे के पास बैठकर अपने पिताजी के जैसा जमीन पर फटका मारने लगता था। धीरे-धीरे वह बच्चा भी इस कार्य में इतना निपुण हो गया कि पिताजी के रहने पर भी जिद करते हुए फटका मारने का काम वह स्वयं करने लगता। अब उस बच्चे के दिलो-दिमाग पर यह कार्य अपने पूर्वजों द्वारा प्रदत्त रिवाज-परंपरा के रूप में उसकी जिंदगी के मुख्य दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था।
धीरे-धीरे समय बीतता रहा और उस अंधे पति-पत्नी के बच्चे की भी आयु बढ़ रही थी। उसका बच्चा अब अपने यौवन की अंगड़ाई ले रहा था। जिस वजह से उसके माता-पिता को अपने बच्चे की शादी की चिंता सताने लगी। साथ-साथ मन में यह भी बातें आने लगीं कि अगर अपने बड़े होते बच्चे की शादी कर दी जाये तो आने वाली बहू से हम दोनों को गृह-कार्य में भी काफी सहायता मिलेगी। इस सोच और अरमान के साथ वे अपने सगे-संबंधियों से अपने बेटे हेतु एक सुन्दर बहू की तलाश करने को कहने लगे। अंततः एक सुन्दर-सुशील और समझदार कन्या का रिश्ता भी आ गया। लड़की पक्ष और लड़का पक्ष वालों ने बहुत ही शानो-शौकत के साथ अपने बच्चे की शादी कर दी। अंधे माता-पिता को अब खाना बनाने से मुक्ति मिल गयी।
अब बहू ने घर की रसोई से लेकर घर का जो भी काम था, उन सभी कामों की जिम्मेदारी बखूबी निभाना शुरु कर दिया। बहू सुबह-शाम उस आंगन में बने चूल्हे पर खाना बनाने की तैयारी करने लगी। लेकिन जब भी बहु खाना बनाने को आये तब उसका पति भी उसकी बगल में बैठ जाये। इस प्रकार की गतिविधी को देखकर बहू मन-ही मन बहुत ही खुश रहने लगी कि चलो मेरा पति बहुत ही प्यार करने वाला मिला है, इस वजह से जब भी में खाना बनाने आती हूं तो मेरा पति मेरे साथ बैठकर मुझसे बातें करने लगता है। लेकिन ये क्या! खाना बनना जैसे ही शुरू हुआ उसका पति एक बांस का फटका लेकर जमीन पर पटकने लगा। बहू को यह सब काफी अटपटा लगा, लेकिन नयी-नयी बहुरिया होने के नाते वह कुछ भी
नहीं बोली। एक दिन बीता, दो दिन बिता लेकिन यह बांस पटकने की प्रक्रिया प्रतिदिन उसके पति द्वारा ऐसे ही चलती रही, ... आखिरकार बहू एक दिन जिज्ञासावश अपने पति से इस फटका पटकने के रहस्य के बारे में पूछ बैठी। अच्छा! ये बताइए कि मैं जब भी खाना बनाने बैठती हूं तब आप मेरे साथ बैठकर जमीन पर बांस का फटका क्यों पटकते हैं?
उसके पति ने काफी सोचकर बताया कि जब से मैंने जन्म लिया और अपना होश संभाला है, तब से मैं अपने घर में अपनी माता जी को खाना बनाते देखता था, तो उस समय पिताजी भी मां के बगल में बैठ जाते थे और ये बांस का फटका जमीन पर पटकने लगते थे और जिस दिन पिताजी घर पर नहीं रहते, किसी काम से बाहर चले जाते थे तो इस कार्य की जिम्मेदारी मुझे मिलती थी। उसी समय से मैं भी इस कार्य को देखता और करता आ रहा हूं और इस प्रकार बांस जमीन पर पटके बिना अपने घर में खाना बनाने की प्रक्रिया भी पूरी नही होती थी। यह हमारे घर की एक शुभ परंपरा है, जो आज मैं भी तुम्हारे साथ कर रहा हूं। बस ! मैं इतना ही जानता हूं। इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं पता। मैं अपनी पुरानी परंपरा से जुड़ा हूं। यह विश्वास से जुड़ा हुआ मामला है और पूर्वजों की आस्था से जुड़ा हुआ है इसलिए मैं भी अपने पूर्वजों की परंपरा को बचा के रखा हूं।
बहू काफी समझदार थी। इस वजह से उसने उस समय चुप रहना ही उचित समझा, लेकिन अंदर-ही-अंदर वह इस परंपरा की सच्चाई जानने को उत्सुक रहने लगी। वह हमेशा इस मौके का इंतजार करने लगी की कब उसकी सास प्रसन्नचित हो और वह इस परंपरा की बात सासु मां के सामने रखे! एक दिन एकांत देखकर बहू अपनी सास से इस फटका वाली परंपरा की बात पूछ ही बैठी अच्छा सासु मां जी! यह बतायें कि अपने घर में खाना बनाते समय यह बांस का फटका जमीन पर पटने की परंपरा क्यों है? सासु मां तो पहले इस बात को सुनकर अनसुना करके निकल गयी, लेकिन बहू ने भी सोच लिया था कि आज सासु मां से इसकी जानकारी लेना ही है! सासु मां, सासु मां जी बताइये न! यह परंपरा कब से अपने घर में और क्यों है? इसका उद्देश्य क्या है? बहू बेटी जैसी जब बहुत जिद करने लगी, तब सास मजबूर होकर अपनी बहू को पूर्व वाली सारी घटना बिल्ली-रोटी की कहानी सुना दी। बहू भी समझ गयी कि मेरे सास और ससुर जी आंख रूपी रोशनी (ज्ञान) के न होने की वजह से किसी भी जानवर को देख नहीं पाते थे, इस वजह से अच्छी प्रक्रिया (बांस का फटका जमीन पर मारना) अपनाये थे, लेकिन मेरे पति और मैं तो आंख के प्रकाश से अंधे (अज्ञान) नहीं हैं। मैं तो बिल्ली (पाखंड) को देख सकती हूं, भगा सकती हूं, छोड़ सकती हूं, शुद्ध कर सकती हूं, लेकिन फिर भी यह दकियानूसी परंपरा, मूर्ख बनाने वाले आडंबर, अज्ञानता वाले कर्मकांड को क्यों निभाए जा रही हूं?
बहू अपनी सासु मां से जानकारी प्राप्त कर अपने पति से वार्ता करने को काफी उत्सुक हुई और एक दिन एकांत देखकर अपने पति के साथ बैठकर माता जी से प्राप्त पूर्व की घटनाओं की जानकारी और अपनी आंखों की रोशनी नहीं होने के कारण उसका समाधान ढूढ़ना और फिर उनका समाधान बाद में एक परम्परा और कर्मकांड के रूप में स्थापित होने की बात बताई। बहुत ही तार्किक ढंग से पत्नी ने अपने पति को समझाया कि आपके माता-पिता आंख (ज्ञान) के अंधे थे इस वजह से बिल्ली (धूर्त) से अपनी रोटी को सुरक्षित बचाने हेतु प्रतिदिन एक परंपरा के तौर पर जमीन पर बांस का फटका मारते थे, ताकि कोई बिल्ली या जानवर उनके पास नहीं आये और उनके द्वारा निर्मित रोटियों को नहीं ले जा सके, लेकिन हम आप तो आंख (ज्ञान) के अंधे नहीं हैं। हम दोनों तो देख सकते हैं कि कोई बिल्ली या जानवर आया या नहीं! आएगा तब हम उसे भगा देंगे, तो फिर क्यों उस अंधी परम्परा को अपने पूर्वजों की परंपरा मान कर पालन कर रहे हैं? उसका पति भी काफी समझदार था इस वजह से वह अपनी पत्नी की तर्कपूर्ण बातों को सुनकर एक बार में ही सारी बातों से अवगत हो गया; सिर्फ स्वयं ही अवगत नहीं हुआ, बल्कि इस प्रकार की बातों से अपनी मित्र मंडली को भी संतुष्ट करने लगा। इस कहानी का निष्कर्ष यही है कि आज भी कुछ परंपराएं ऐसी है जिन्हें हम आंख मुड़कर अनुसार कर लेते हैं उसके लॉजिक को समझे बिना। आस्था, विश्वास और शृद्धा से ऊपर उठकर भी थोड़ा विचार करें। उस बहू के जैसा आप भी तर्कशील होकर सोंचे! बनें! और करें !
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