हिंदी भाषा

पहली व दूसरी कक्षा विषय हिन्दी शिक्षण प्राथमिक स्तर

बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में मातृभाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। भाषा प्रत्येक बच्चे के दृष्टिकोण, उसकी रूचियों, क्षमताओं यहां तक कि मूल्यों और मनोवृत्तियों को भी आकार देती है। भाषा सोचने, महसूस करने और चीजों से जुड़ने का एक उत्तम साधन है। भाषा ही बच्चे को समझदार, विचारवान, सभ्य और शिक्षित बनाती है। मातृभाषा में ही बच्चे का मस्तिष्क सबसे पहले क्रियाशील होता है | अतः मातृभाषा बच्चे की पहली उपलब्धि और सहायिका है। यही कारण है कि सभी शिक्षाशास्त्री एकमत हैं कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा में संप्रेषण का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए। मातृभाषा अर्थात वहां के परिवेश की स्थानीय बोली जो बोली जाती है।

विद्यालय और घर के परिवेश में अंतर

विद्यालय बच्चों के लिए ऐसा स्थान है जो कई दृष्टियों से घर से भिन्न है। विद्यालय के अपने नियम-कायदे हैं। बच्चे कुछ घंटों के लिए अपने परिवार से दूर हो जाते हैं। परन्तु बच्चे अपने साथ अपनी भाषा, अपने अनुभव एवं दुनिया को देखने का अपना दृष्टिकोण आदि लेकर विद्यालय आते हैं। इन्हीं सबका उपयोग करते हुए शिक्षक को बच्चों से आत्मीय संबंध बनाना पड़ता है ताकि विद्यालय के नवीन परिवेश में बच्चे अपनापन अनुभव करें। बच्चों के घर की भाषा और विद्यालय की भाषा के बीच के संबंध को उसकी विविधता एवं लचीलेपन के साथ देखना अत्यन्त आवश्यक है। प्रत्येक बच्चे की भाषा अपने आप में पूर्ण होती है इसलिए उसे किसी मापदंड पर आंकना उचित नहीं है।

बच्चे घर-परिवार एवं परिवेश से प्राप्त बोलचाल की भाषा के अनुभवों को लेकर ही विद्यालय आते हैं। पहली बार स्कूल में आने वाला बच्चा शब्दों के अर्थ और उनके प्रभाव से परिचित होता है। लिपिबद्ध चिह्न और उनसे जुड़ी ध्वनियां बच्चों के लिए अमूर्त हैं, इसलिए पढ़ने का प्रारम्भ अर्थ से ही हो और किसी उद्देश्य के लिए हो। यह उद्देश्य कहानी सुनकर, पढ़कर आनंद लेने के रूप में भी हो सकता है। धीरे-धीरे बच्चों में भाषा की लिपि से परिचित होकर अपने परिवेश में उपलब्ध लिखित भाषा को भी पढ़ने समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। भाषा शिक्षण की इस प्रक्रिया के मूल में बच्चों के बारे में यह अवधारणा है कि बच्चे दुनिया के बारे में अपनी समझ और ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं। यह निर्माण किसी के सिखाए जाने या जोर जबरदस्ती से नहीं बल्कि बच्चों के स्वयं के अनुभवों और आवश्यकताओं से होता है। इसलिए बच्चों को ऐसा वातावरण मिलना जरूरी है जहां वे बिना किसी रोक-टोक के अपनी उत्सुकता के अनुसार अपने परिवेश की खोज-बीन कर सकें। यही अवधारणा बच्चों के भाषिक कौशलों पर भी लागू होती है। 

स्कूल में बच्चों की भाषाई झिझक को समझना

स्कूल में आने पर बच्चे प्रायः स्वयं को बेझिझक अभिव्यक्त करने में असमर्थ पाते हैं क्योंकि जिस भाषा में वे सहज रूप से अपनी राय, अनुभव, भावनाएं आदि व्यक्त करना चाहते हैं वह स्कूल में प्रायः स्वीकृत नहीं होती। भाषा शिक्षण को बहुभाषी संदर्भ में रखकर देखने की आवश्यकता है। कक्षा में बच्चे अलग-अलग भाषाई - सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं। कक्षा में इनकी भाषाओं का स्वागत किया जाना चाहिए और उनमें बच्चों से सहज अभिव्यक्ति क्षमता का उपयोग करते हुए हिन्दी पढ़ाई जानी चाहिए। शिक्षक बहुभाषिकता की महत्ता को समझकर कक्षा में उसका उपयोग करे, तभी वह बच्चों को अपने परिवेश में स्थित सांस्कृतिक और भाषिक विविधता के प्रति संवेदनशील बना सकता है। आज बहुभाषिकता को बच्चे के व्यक्तित्व विकास के लिए संसाधन के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है। अतः भाषाई संदर्भ में हर प्राथमिक शिक्षक का यह दायित्व है कि वे ग्रामीण परिवेश से आने वाले बच्चे की स्थानीय बोली का सम्मान करे । उसे अभिव्यक्ति का उचित अवसर दे और परिमार्जित भाषा को एक दम बच्चे पर न थोपें ताकि बच्चे में अभिव्यक्ति - कौशल का उचित विकास हो । अतएव प्रारंभिक स्तर की प्रथम दो कक्षाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निम्न उद्देश्य रखे गए हैं -

उद्देश्य

1. बच्चों में अपने अनुभव और विचार बताने की इच्छा और उत्सुकता जगाना |

• बच्चे स्कूल के वातावरण में अपनापन महसूस करें ।

• वे घर की भाषा और स्कूल की भाषा में आपसी संबंध बनाते हुए उसको विस्तार दे सकें।

• बच्चों को प्रश्न पूछने, अपनी बात कहने का भरपूर मौका मिले |

बच्चों में दूसरों की बात सुनने में रूचि और धैर्य पैदा करना, उनसे सुनी बात पर टिप्पणी दे पाना ।

2. बच्चे द्वारा अक्षर जोड़कर पढ़ने की बजाए समझकर पढ़ना ।

3 • परिवेश में उपलब्ध संदर्भों, चित्रों और छपी हुई सामग्री से परिचित होने के कारण बच्चा अनुमान से पढ़ने का प्रयास कर सकेगा ।

• 4. बच्चों द्वारा अपनी दुनिया तथा अपने पूर्वज्ञान की मदद से पाठ्यसामग्री और स्कूली परिवेश में उपलब्ध लिखित सामग्री से अर्थ ग्रहण करना, जैसे -

• पढ़ने की प्रक्रिया को दैनिक जीवन की (स्कूल और बाहर की जरूरतों से जोड़ना, जैसे कक्षा और स्कूल में अपना नाम, अपनी मनपसन्द पाठ्यसामग्री और पाठ्यपुस्तक का नाम पढ़ना ।

• परिवेश में उपलब्ध छपी हुई सामग्री (चित्र और शब्द) को देखकर बच्चे संदर्भ से परिचित होने के कारण अनुमान लगाकर पढ़ने का प्रयास कर सकते हैं ।

5. सुनी और पढ़ी कहानियों और कविताओं से अपने अनुभव जोड़ पाना और सहज ढंग से अभिव्यक्ति कर पाना ।

चित्रकारी को स्वयं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना ।

• बच्चे स्वाभाविक अभिव्यक्ति के लिए किसी प्रकार का रेखांकन कर सकते हैं।

7. लिपि चिह्नों को देखकर और उनकी ध्वनियों को सुनकर और समझकर उनमें सहसंबंध बनाते हुए लिखने का प्रयास कर सकें ।

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