अंजाम क्यों हो 'श्रद्धा' सा तुम्हारा

 


*अंजाम क्यों हो 'श्रद्धा' सा तुम्हारा*

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सोया था मैं गहरी नींद में ,

एक मुझे सपना आया ।

हाथ पकड़कर ,गहन झंझोड़कर ,

जैसे था मुझे नींद जगाया ।


एक दिखा अस्पष्ट सा साया ,

जो धुंधला सा लगता था ।

जिसने खुद को था 'श्रद्धा' बताया,

सुनकर मन डर से कंपता था ।


बोली श्रद्धा ,हो 'अजस्र' तुम,

क्या मेरे लिए ,कर सकते कुछ ?

हश्र हुआ जो मेरा वैसा ,

किसी का न हो, मैं चाहु सचमुच ।


दोष क्या मेरा प्रेम किया था,

और देखें संग सुख-सपने ।

साथी मिलेगा ,दांपत्य सजेगा ,

और लगेगा संसार संवरने ।


ऐसे ही सुख-सपनों खातिर ,

स्वपरिवार तक छोड़ दिया ।

माता-पिता को, क्या मैं दोष दूं ,

मैंने स्वयं उनको बस दुखी किया ।


पढ़ी-लिखी मैं समझदार थी,

संस्कारों आधुनिक पली हुई ।

पर इसमें भी क्या दोष था मेरा,

जो देखा जग मैं , मैं चलते गई ।


पहली-पहली बातों में मुझको,

उसने झूठ से बहकाया ।

सब्जबाग मुझे घने दिखाए ,

तब जाकर धोखा खाया ।


उसकी बातों का सच लेने ,

निरख परखने साथ चली ।

इसमें भी बाजीगरी उसकी ,

कदम-कदम पर गई छली ।


रिश्ता था लिव-इन का हमारा ,

सोच समझकर सब था किया ।

पर उसके धोखों के आगे ,

कहीं भी मैंने ना सुकून लिया ।


अहसास हुआ जब सच्चाई का ,

बचने का बस प्रक्रम किया ।

किंतु देर बहुत हो ही चुकी थी ,

उसने न कोई ,मुझे मौका दिया ।


मैं सम्भलु या उसे सुधारू ,

उपाय मेरे कोई पास न था ।

विपरीत कुछ ऐसा मुझसे हुआ था ,

अपना कोई साथ ना था ।


जीवन से मैं हुई हताश तो ,

मरने तक को सोच लिया ।

फिर भी अपने आत्मविश्वास से ,

स्थिति संभालने प्रयास किया ।


प्रेम,बहस और समझाइस ,

क्या-क्या ना तब मैंने किया ।

चोट भी खाई, मार भी सह ली ,

फिर भी उसने, दगा ही दिया ।


बात तो तब फिर हद से बढ़ गई,

जीवन उसने छीन लिया ।

आत्मा रूप मैं फिर भी वही थी,

काट मुझे टुकड़ों में किया ।


कानून को छलने ,सजा से बचने,

बहुत उसने प्रबंध किया ।

पर मेरे ईश्वर ने उसको ,

इसका कोई मौका ना दिया ।


न्याय मिलेगा मुझे यकीन है ,

देश-धर्म कानून पर ।

पर कैसे  मानू, कोई होगी ना आहत,

मुझ सी दुर्गत, किसी मजलूम सर ।


कहते-कहते आंखों-आंसू से ,

गला उसका था भर आया ।

मैं भी उसकी करुण कथा सुन,

मन ही मन में था कलपाया ।


एक पल बस ,मन ही मन सोचा ,

फिर बोला मैं विचार कर ।

कर्म तुम्हारा और जो उसका ,

कुछ बचे नहीं उधार पर ।


उसको सजा कानून मिलेगी ,

उसका होगा बुरा भविष्य ।

पर तूने जो दुर्गत है पाई ,

वैसा ना बिगड़े कोई और भविष्य ।


भारत बाला ना,'श्रद्धा' बने कोई,

प्रबंध ठोस करना होगा ।

दुर्गा-काली का स्वरूप लेकर के,

हर बाला को लड़ना होगा ।


स्व की रक्षा स्वयं से होगी ,

कमजोर नहीं हो कहीं भी तुम ।

कितने ही फिर 'आफताब' से आए,

धोखे में ना अब पढ़ोगे तुम ।


संस्कार आधुनिक भले ही ले लो,

हो परिवार का साथ हमेशा ।

विपरीत कोई भी स्थिति भले हो,

साथ-सहारा तुम्हें मिलेगा ।


स्वतंत्रता को स्वतंत्रता ही ,

उच्छृंखलता मत इसे बनाओ।

भारतीय संस्कृति के 'अजस्र' तत्वों को ,

जो हितकर उनको अपनाओ ।


सोच सही हो ,प्रेम पवित्रता ,

फिर डर तुम्हें ,जग काहे का ।

पर परिवार और साथ समाज की,

गति भी तुम्हें चलना होगा ।


सच्चे लोग ही नारी को फिर ,

दानव-नर से बचा लेंगे ।

देश-कानून मजबूत 'अजस्र' हो,

ना 'श्रद्धा' कोई फिर, बनने देंगे ,


श्रद्धा मुस्काई , ज्योंही उसने,

हाथ को मेरे ,हाथ मिलाया ।

धुंधलके खो गया ,अस्पष्ट वो साया,

मैं भी नींद से फिर,सचेत आया ।


     ✍️✍️ *डी कुमार--अजस्र(दुर्गेश मेघवाल ,बून्दी/राज.)*

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