क्या आप भी सफलता प्राप्त करना चाहते हैं? तो सोचो हम क्या करें?

                                  हम क्या करें ?
           हमारे सामने यह प्रश्न खड़ा होता है कि हम सफलता प्राप्त करने के लिए क्या करें ? अर्थात् हमें क्या करना चाहिये, जिससे हम अपने जीवन में सफल हो जायें। इस प्रश्न का उत्तर ही इस अध्याय में दिया गया है ।
सफलता प्राप्त करने के लिए हमारे अन्दर कुछ विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक है। उन गुणों के बिना हम जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते । यदि सौभाग्यवश वे गुण हमारे अन्दर नहीं हैं, तो सबसे प्रथम हमारा कर्तव्य यही हो जाता है कि उन गुणों व आदतों का हम अपने अन्दर समावेश करें-- अर्थात् किसी प्रकार से उन्हें ग्रहण करें। वे गुण हैं—आत्म-सम्मान, स्वावलम्बन, समय की पाबन्दी, अध्यवसाय, सञ्चरित्रता, ईमानदारी आदि। इन सब गुणों पर आगे क्रमशः बिचार करेंगे; परन्तु इन सदगुणों के अतिरिक्त हमारे अन्दर और भी बहुत कुछ होना आवश्यक है। यदि हमारे अन्दर उपर्युक्त गुण हों तथा साथ में वे सब बातें भी हों; जिनका यहाँ पर वर्णन किया जा रहा है, तो निश्चय ही हमारे उद्देश्य पूर्ण होंगे और सफलता हमारे क़दम चूमेगी ।
उपर्युक्त गुणों से लाभ उठाते हुए हमें सफलता प्राप्त करने के लिए और जो कुछ भी करना चाहिए, वह बहुत कुछ इस प्रकार है-
                             उद्देश्य चुनिए
         सबसे पहले हमें अपने जीवन का उद्देश्य चुनना चाहिये, जिसमें हमें सफलता प्राप्त करनी है। बिना किसी उद्देश्य के हम सफलता के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि यह तो सब ही जानते हैं कि प्रत्येक यात्रा का कुछ न कुछ लक्ष्य अवश्य ही होता है। इसलिए जीवन-यात्रा का भी लक्ष्य अवश्य होना चाहिए। बिना उद्देश्य के मनुष्य की स्थिति बहुत कुछ बेपेंदी के लोटे की सी होती है - जिधर ढाल देखा, उधर ही लुड़क पड़ा और ऐसे मनुष्य जीवन भर लुढ़कते ही रहते हैं । सफलता प्राप्त करना तो क्या, वे तो सफलता का विचार तक भी नहीं पा सकते ।
जब हम अपना उद्देश्य निश्चय करलें, तब हमें अपनी सारी मानसिक व शारीरिक शक्ति उसे सफल बना देने में लगा देनी चाहिए। इससे हमें सफलता अवश्य मिलेगी !
                             उच्च विचार
       हमें सदैव अपने विचार उच्च रखने चाहिएँ। हमारे भावों का आशापूर्ण होना सफलता के वास्ते बहुत ही आवश्यक है। हमें निराशा जनक विचारों को अपने पास तक न फटकने देना चाहिए। हमारा निश्चय अविचल होना चाहिए। चाहे कुछ भी आपत्ति या विपद सामने क्यों न आ खड़ी हो, हमें अपने निश्चय से नहीं हटना चाहिए । हमारा हृदय अभिलाषापूर्ण होना चाहिए, जो नित्य नई-नई अभिलाषाओं को जन्म देता रहे। बहुत से लोग समझते हैं कि हवाई क़िले बाँधना मूर्खो का काम है। परन्तु उन लोगों का ऐसा समझना बहुत ही भ्रमपूर्ण है, क्योंकि अभिलाषाएँ ही तो हमारे जीवन रूपी भवन के नक़्शे (चित्र) हैं।
                                   आशावादी
        इसके बाद हमें चाहिए कि हम जी तोड़ परिश्रम करें। लेकिन साथ ही साथ हमें अपना मानसिक क्षेत्र संकुचित नहीं करना चाहिए। हमें सदैव यही विचार रखना चाहिए कि हम सफलता के मार्ग में हैं और शीघ्र ही सफलता प्राप्त करने वाले हैं। हमें अपने मनुष्यत्व का विकास करना चाहिए। यह विचार तो कभी मस्तिक में लाना न चाहिए कि हम असफल हो सकते हैं, या हम असफल हो जावेंगे।
        इतने पर भी जो मनुष्य असफल होता है उसे समझ लेना चाहिए कि उसके भावों में कोई विकार प्रवेश कर गया है। अन्यथा क्या कारण है कि उससे कम बुद्धिमान और उससे कम परिश्रम करने वाला उसका साथी सफलता प्राप्त कर चुका है। उसे चाहिए कि वह अपने भय और निराशाजनक विचारों को दूर हटा दे और इस बार सफलता अवश्य ही मेरे पैरों तले आयेंगी। ऐसा उच्च और आशापूर्ण विचार अपने हृदय में धारण कर दृढ़तापूर्वक कार्य करने में जुट जाय उसे चाहिये कि वह असफलता का डर बिल्कुल ही निकाल दे। और ठीक तो यह है कि वह यह तक भूल जाय कि कोश में 'असफलता' नाम का कोई शब्द भी होता है। इस प्रकार मनुष्य को आशावादी होना चाहिये।
    यदि हम अपने प्रयत्न में असफल हो जायें तो हमें निराश होकर न बैठ जाना चाहिए, जैसा कि अधिकांश मनुष्य करते हैं। अपनी गलति या असावधानी से असफल होकर निराश हो जाना तथा सब दोष अपने भाग्य और ईश्वर पर लाद देना अकर्मण्य मनुष्यों का कार्य होता है। सफलता के इच्छुक मनुष्यों को तो असफल होने पर असफलता के कारणों को ढूंढ कर आगे बढ़ने की चेष्टा करनी चाहिए। हमें धारणा बना लेनी चाहिए कि हम असफलताओं की चिन्ता न करते हुए आगे बढ़ेंगे हमें आगे बढ़ना है। हाँ ! क्योंकि सफलता खड़ी हुई हमारी राह देख रही है।
       यह बहुत सम्भव है कि सफलता के लिए प्रयत्न करते हुए, हमसे काफी त्रुटियों व गलतियों होंगी, परन्तु तब हमारा कर्तव्य हो जावेगा कि हम मालूम करें कि हमसे क्या गलती हुई है। हमें उन्हें सदा ध्यान में रखना होगा, साथ ही साथ उन्हें सुधारने का भी प्रयत्न करना होगा- जिससे वैसी गलती फिर कभी न हो। हमारी बुद्धिमत्ता इसी में होगी कि वे गलतियाँ फिर न होने पायें, जो कि पहले हो चुकी हैं। इस स्थल पर चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की एक घटना का उल्लेख करना अनुपयुक्त न होगा।
                                      इतिहास से सीखना
        इतिहास पढ़ने से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने ईसा से लगभग ३२७ वर्ष पूर्व अपनी सेना द्वारा मगध नरेश महापद्मनन्द के राज्य पर कई आक्रमण किये, जिनमें वह सदैव असफल रहा। यहाँ तक कि एक बार तो उसे उसके सभी साथियों के नष्ट हो जाने पर छद्म वेश में एक गाँव में एक बुढ़िया के यहाँ आश्रय लेना पड़ा । उस बुढ़िया ने भोजन के समय चन्द्रगुप्त के आगे गर्म खिचड़ी का थाल रक्खा। भूखे चन्द्रगुप्त ने उतावली में बीच थाल में से ही खाना आरम्भ कर दिया, जिससे उसका मुँह जल गया। यह देख बुढ़िया मुस्कराई और बोली -- 'बेटा ! तुम भी चन्द्रगुप्त की ही तरह /ग़लती कर रहे हो ?'
चन्द्रगुप्त चौंक पड़ा। यह बुढ़िया अनजाने में चन्द्रगुप्त को चन्द्रगुप्त की ही ग़लती बता रही है, जिसके कारण चन्द्रगुप्त कई बार पराजित हुआ ।
उत्सुकतापूर्वक उसने पूछा -- 'माई ! चन्द्रगुप्त ने क्या ग़लती की, जिसे मैं भी कर रहा हूँ ?'
बुढ़िया हँस कर बोली- - बेटा, चन्द्रगुप्त बहुत वीर और साहसी है, परन्तु उसने सदैव राज्य के मध्य भाग में आक्रमण किया है, जहाँ शासन का बहुत जोर रहता है और इसी कारण वह सदा पराजित कर दिया जाता है। उसे चाहिए कि वह राज्य के केन्द्र के आस-पास आक्रमण न कर सीमा के पास के प्रान्तों में धावा बोले । वहाँ सेना भी कम रहती है और राजधानी भी दूर पड़ जाती है। इस कारण वहाँ सफलता निश्चय ही प्राप्त की जा सकती है। चन्द्रगुप्त यही ग़लती करता है कि वह सीमा के प्रान्तों को हस्तगत न कर एक दम राजधानी को ही प्राप्त करना चाहता है । बहुत कुछ यही ग़लती तुम भी कर रहे हो । तुम भी किनारे की ठण्डी खिचड़ी न खाकर, बीच में से गर्म खिचड़ी खा रहे हो और व्यर्थ ही में पीड़ा पा रहे हो । अरे भाई, पहले किनारे को तो साफ़ करो; फिर मध्य भाग तो अपने आप ही समाप्त हो जायगा चन्द्रगुप्त की आँखें खुल गई । उसे अपनी गलती का पता चल गया और एक शिक्षा भी मिली। खिचड़ी की थाली एक ओर सरंका कर वह उठ खड़ा हुआ !" हृदय में आशा का संचार हुआ और उसने फिर सैन्य-संगठन किया। पर अब पहले वाली गलती न दोहराई और सीमा प्रान्तों पर अधिकार पाकर धीरे-धीरे तमाम राज्य पर अधिकार कर लिया और ३२२ ई० पू० में यह भारतवर्ष का सम्राट् बन बैठा।
एक नहीं इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमें अतीत के इतिहास के स्वर्णों पर दृष्टिगोचर होते हैं। ये हमें शिक्षा देते हैं। इनका मनन कर हम सफलता के मार्ग पर बहुत आसानी के साथ बढ़ सकते हैं, सफल बन सकते हैं।
सफलता प्राप्त करने के लिये हमें दूसरे मनुष्यों के अनुभवों से पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिये। उनके सदगुणों को ग्रहण करना चाहिये व त्रुटियों को दूर रखना चाहिये। उनकी मूर्खताओं व गलतियों का सदैव विचार रखना चाहिये तथा सफलता के मार्ग में उन्हें दोहराने का प्रयत्न
नहीं करना चाहिये ।
                                       दृढ इच्छा शक्ति
       सफलता पाने के लिये हम में दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिये। यदि हमारे अन्दर दृढ़ता का अभाव रहा तो हम सफलता के शिखर पर कभी नहीं पहुँच सकते। हमें अपने विचारों पर दृढ़ रहना चाहिये बहुत सोच-विचार के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुंचना तथा फिर उसी पर दृढ़ रहना एक बहुत ही उत्तम गुण है।
                                      अपने कार्य से प्रेम
        सफलता के इच्छुक को किसी कार्य करने में घ्रणा या लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिये! चाहे कार्य छोटा हो या बड़ा हो, उसे करने में कभी संकोच नहीं करना चाहिये। कबीरदासजी को देखिये- वे जुलाहे का कार्य करते थे, और बहुत ही प्रसन्नतापूर्वक करते थे। उन्हें इस बात की ग्लानि व दुःख न था। इसी प्रकार ईश्वर के एक परम भक्त चेता चमार थे। उन्हें अपने व्यवसाय पर गर्व था। वास्तव में छोटा कार्य करने से मनुष्य छोटा नहीं हो जाता बल्कि छोटे-छोटे कार्य करने के उपरान्त ही मनुष्य बचा कार्य करने में समर्थ होता है। जीवन का निर्माण छोटी इकाइयों से ही होता है।
                                   अपनी रुचि का कार्य
         जैसा कि आरम्भ में ही कहा जा चुका है, प्रत्येक मनुष्य को अपना उद्देश्य निश्चित करते समय अपने उपयुक्त कार्य व अपनी रुचि का ध्यान रखना चाहिए। जब तक मनुष्य को उसके योग्य कार्य नहीं मिलता वह सफल नहीं होता। अतएव प्रत्येक मनुष्य को सफलता प्राप्त करने के
लिए अपनी रुचि का अनुसरण करना चाहिये। हम महत्वाकांक्षाओं के विरुद्ध अधिक समय तक युद्ध नहीं कर सकते। इसमें हमें परास्त होना ही पड़ेगा। ऐसे समय हमें अपने प्रेमियों व रिश्तेदारों के कहने की परवाह नहीं करनी चाहिये। हमें अपनी रुचि के कार्य को कभी नहीं त्यागना चाहिए, चाहे लोग कितना ही विरोध क्यों न करें क्योंकि जिस कार्य में रुचि नहीं होती, यह पूरा, ठीक, सुन्दर व लाभप्रद नहीं हो सकता। गैलेलियो का उदाहरण लीजिये उसके परिवार के सदस्य उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे और वह बेचारा गणिज्ञ बनकर गणित-शास्त्र को ही अपना जीवन देना चाहता था। इसका परिणाम यह हुआ कि अध्ययन काल में गैलेलियो ने शल्यशास्त्र ( Surgeory ) के नीचे गणित की कापी में प्रश्न हल किये और अन्त में उसने पैराडुलम के सिद्धान्त का आविष्कार किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि गैलेलियों की रुचि गणित की ओर ही अधिक थी और इसी कारण गैलेलियो एक गणितज्ञ कहलाया डाक्टर नहीं।
          इसी प्रकार हिटलर की माता हिटलर को चित्रकार व संगीतज्ञ बनाना चाहती थी, जबकि उसकी प्रवृत्ति मास्पीट व हुक्म चलाने में अधिक थी ऐसे अवसरों पर वही होता है, जो प्रकृति चाहती है; और इसी कारण अपने माता-पिता के सतत प्रयत्नों से भी वह चित्रकार न..बनकर एक सैनिक ही बना, जहाँ उसकी अदम्य इच्छाशक्ति, बुद्धि व महत्त्वाकांक्षा ने उसे जर्मनी का भाग्य-विधाता बना डाला ।
इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि हम अपनी रुचि को दबाकर व उसकी हत्या करके सफलता के मार्ग पर नहीं बढ़ सकते, इसी कारण रुचि के अनुसार कार्य करना भी सफलता तक पहुंचाने वाला एक साधन है।
                                     अथक परिश्रम
          बहुत से मनुष्य बिना कुछ काम किए ही सफलता का स्वप्न देखा करते हैं। वे सोचते हैं कि यदि कुछ करे धरे
बिना ही जीवन आराम से कट जाय तो बड़ा ही आनन्द रहे। ऐसे आलसी और  कामचोर मनुष्य जीवन में कभी भी सफल नहीं हो सकते। इस जीवन में प्रत्येक अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सब को काम करना चाहिए। काम करने से ही हम जीवन-संग्राम में विजय पा सकते हैं। देखिये न खाली हाथ तो खाना भी नहीं मिलता, फिर भला सफलता की तो चर्चा भी करना व्यर्थ है।
                                छोटे कार्यों से शुरुआत
         सफलता के बहुत से इच्छुक, ऊँची जगह (Post) व अच्छी नौकरी (Job) की ही प्रतीक्षा करते हैं। छोटी जगह पर तो वे काम ही नहीं करना चाहते। शायद इसमें उनका भारी अपमान होता है। वे तो केवल बड़ी जगह पर ही काम करना पसन्द करते हैं। परन्तु बड़ी जगह सभी को तो नहीं मिलती, इसलिए बहुत से सज्जन तो अपना जीवन केवल बड़ी नौकरियों की प्रतीक्षा में ही बिताते हैं। लेकिन उन्हें शायद इस बात का ख्याल नहीं है कि सफलता के पर्वत की ऊँची चोटी पर पहुँचने के लिये सदा नीची सतह से ही चड़ना आरम्भ करना पड़ता है। लोगों को छोटी जगह से ही बढ़ना शुरू करना चाहिये तथा परिश्रम के साथ उन्नति की और अग्रसर होना चाहिए।
                                 हाथ का काम पूरा करें
          जिस काम को हम अपने हाथ में लें, हमें चाहिये कि हम उसे पूरे उत्साह, नवीनता, निपुणता व फुर्ती से करें क्योंकि जिस काम को हाथ में लिया, उसे तो पूरा करना ही है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम उसे प्रसन्नतापूर्वक व उत्साहपूर्वक करें या रोते हुए करें करना तो पढ़ेगा ही, क्यों न हम उसे नवीनता व निपुणता के साथ करें, जिससे कार्य में सुन्दरता व सुधराई आ जाय । तर्क हमें महामूर्खों के लिये छोड़ देनी चाहिए कि 'हमें जब अमुक काम नहीं मिला तो हम इस काम को क्यों करें ?' अथवा --'हमें यदि अमुक काम मिलता, तो देखना था हम उसे कितना अच्छा करते। पर जब वह काम न मिला तो इसे क्या करें ?' आदि। जो काम हाथ में हो, उसे भली भाँति पूरा करना चाहिए।
                                  अपने काम से सीखना
          अपने काम से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक बात से लाभ उठाना चाहिए। यह न सोचना चाहिए कि यह तो बहुत मामूली बात है, और बिल्कुल बेकार है। कभी कभी यह बैकार-सी बातें ही सफलता दिलवाने में बहुत अधिक सहायक हो जाती है। 
  हमें मख्खी की तरह से नहीं होना चाहिए कि अभी इधर, अभी उधर, आज यहाँ, कल वहाँ, वरन एक जगह डटकर काम करना चाहिए। रोज इधर-उधर भटकने वाले मनुष्य कभी सफल नहीं हो सकते ।
सफलता प्राप्त करने के लिए हमें केवल कल्पना पर ही कार्य नहीं करना चाहिए। हमें जो कुछ भी करना हो, उसका पहले एक चित्र तैयार कर लेना चाहिये और फिर उसी के अनुसार क्रमशः धैर्यपूर्वक आगे बढ़ते चले जाना चाहिए। मार्ग में हमें बाधाओं का वीरतापूर्वक सामना करना चाहिए। इस प्रकार अपने आप ही सफलता का अवरुद्ध मार्ग साफ होता जायगा तथा हम अपने उद्देश्यों में सफलता प्राप्त करेंगे।
                                  अपने पैरों पर खड़े होना
          बहुत से मनुष्य बात-बात में दूसरों से मदद व सहायता की प्रार्थना करते हैं। ऐसे लोग जीवन में सफलता कभी नहीं प्राप्त कर सकते। जो स्वयं अपने पैरों पर खड़ा न हो सकता हो, वह जीवन में किस प्रकार सफल हो सकता है। वह तो जीवन-पथ पर सहारे के बिना नही चल सफता । भला सफलता के दुर्गम पथ पर आगे बढ़ने की आशा इससे किस प्रकार रक्खी जा सकती है ? इस कारण सफलता प्राप्त करने
के लिए हमें दूसरों का मुँह न ताकना चाहिए, वरन अपने आप ही दृढ़ता पूर्वक प्रयत्न करते चले जाना चाहिये ।
हमें अपनी बुद्धि को मनोवृत्ति और विचारशक्ति को दृढ़ बनाना चाहिये ।
                                      विचारशीलता
               विचारशक्ति वाला मनुष्य ही इस जीवन-संग्राम में सफल होता है। यदि हमारी विचारशक्ति नहीं है, तो हमें पहले उसे दृढ़ करने का प्रयत्न करना चाहिये। यह बहुत कठिन काम नहीं है। हम शीघ्र ही अपनी मानसिक दुर्बलता को दूर कर सकते हैं। इस कार्य में हमें अपनी बुद्धि विद्वानों का सतसंग और सदाचरण ही सहायता दे सकते हैं। इनकी सहायता लेकर हम अपने मानसिक विकारों व मानसिक दुर्बलताओं का विनाश कर सकते हैं।
यहाँ पर यह बात भी मानी जा सकती है कि इतने सब सद्गुण व अच्छी आदतें प्रत्येक मनुष्य में न तो पाई जाती हैं और न उत्पन्न ही की जा सकती है। किसी मनुष्य में कोई गुण स्वयं ही पाया जाता है, जब कि दूसरे में वह किसी भी प्रकार उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अब प्रश्न यह होता है कि इस दशा में क्या किया जाय ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि हमें अपनी एक शक्ति से काम लेकर उसे ही तीव्र करना चाहिये। इससे हम सफलता के मार्ग पर आसानी से बढ़ सकेंगे। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए अन्धे का उदाहरण दिया जा सकता है। अन्धे की देखने की शक्ति कम हो जाती है। यह देख कुछ भी नहीं सकता, परन्तु इससे प्रकृति उसकी छूकर मस्तिष्क में अनुमान लगाने की शक्ति, उसके हाथों व पैरों की टटोलने की शक्ति व कान से सुनकर अनुमान करने की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा देती है कि वह बिना देखे हुए भी बहुत कुछ वस्तुओं का ठीक अनुमान लगा लेता है। अर्थात् प्रकृति उसकी दूसरी शक्ति को तीव्र कर देती है। इसी प्रकार हमें भी चाहिये कि हम अपनी एक शक्ति से अधिक काम लेकर उसे ही तीव्रतम कर दें।
    मि० जान रसेल के अनुसार जीवन में मनुष्य को सफलता प्राप्त करने के लिए काम करना बेकार समय न खोना, अनुभवों से लाभ उठाना तथा विश्वासपात्र व नम्र होना चाहिए। वे सफलता के लिए इन सब बातों को बहुत ही आवश्यक बताते हैं ।
    
'सतर्कता से अवसर की ताक में रहना, कौशल और साहस से अवसर को प्राप्त करना, शक्ति और दृढ़ता के द्वारा अवसरों को सर्वोत्तम सफलता पर पहुँचाना इन्हीं सदगुणों द्वारा सफलता प्राप्त की जा सकती है।'
(--ए० फेल्प्स)
बड़े मनुष्यों के जीवन सदैव यही कहते हैं कि सफलता प्राप्त करने के लिए हमें पहले विचार और फिर निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। जब जार ( एलेक्जएटर) ने नेपोलियन से उसकी सफलता का रहस्य पूछा, तो उसने यही उत्तर दिया कि इसके लिए किसी कार्य में निरन्तर लगे रहना ही यथेष्ट और आवश्यक है।
बेंजामिन फ्रेंकलिन का कथन है--सफलता परिश्रम करने से ही प्राप्त होती है केवल सोचने मात्र से नहीं
    यदि हम जीवन में वास्तविक सफलता प्राप्त करना चाहें तो  हमें चाहिए कि हम संसार (प्रकृति) के प्रत्येक जीव व प्रत्येक कार्य से कुछ न कुछ शिक्षा अवश्य ग्रहण करें। हमारे जीवन में चारों और शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं हमें तो केवल उन्हें ग्रहण करना है। 
देखिये धुंआ कितनी मामूली वस्तु है, परन्तु वह हमें शिक्षा देता है कि हमें सदैव ऊपर को ही उठना चाहिए। चाहे जीवन समाप्त ही क्यों न हो जाय, नीचे कभी नहीं आना चाहिए।
                                    प्रकृति की हर वस्तु से सीखना
            मेंहदी से आप अपरचित न होंगे। मेंहदी इस दुनिया वालों को यही शिक्षा देती है कि तुम्हें भी मेरी तरह दूसरों पर अपना रंग चढ़ाना चाहिए। जिस प्रकार मेंहदी प्रत्येक वस्तु पर अपना रंग जमा देती हैं, उसी प्रकार हमें भी दूसरों पर अपना रंग (प्रभाव) जमाना चाहिये ।
जल की धारा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जिस प्रकार घास, बाधाओं की परवाह न करते हुए सदैव आगे को ही बढ़ती रहती है, कभी पीछे नहीं हटना।
इस प्रकार हमें भी आपदाओं व विघ्नों का किंचित्
मात्र भी भय न करते हुए सदैव ही आगे की ओर बढ़ना चाहिए।
बेल व लताएँ वृक्षों से लिपट कर हमें शिक्षा देती हैं कि हमें भी अपने सँगियों व साथियों से इतना ही प्रेम-भाव रखना चाहिये।
                 आचल पर्वत हमें शिक्षा देने के वास्ते ही खड़े हुए कह रहे हैं--'हमसे कुछ सीखो हमारी तरह विपत्तियों, दुःखों व कठिनाइयों से हैंसते हुए टक्कर लेना सीखो। आपत्तियों के मध्य में हमारी तरह अडिग और अचल होना सीखो
जीवन में इतनी शिक्षाओं के भरे रहने पर भी, आश्चर्य है, यदि हम कुछ भी शिक्षा ग्रहण न करें। हमें तो सफलता के लिए आगे बढ़ना है- कौन कहता है कि हम असफल होंगे। असफलता का भय गलत है, हमें सफल होना है। सफलता खड़ी हमारा मार्ग देख रही है।

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