वह बचपन की दुनिया...
छोटी थी
लेकिन बहुत सघन।
दुनिया क्या थी-
परिवार, गांव, स्कूल,
कुछ आसपास के गाव,
खेत-खलिहान,
ऋतुएं, मौसम, बाग-बगीचे, बम ।
लेकिन इन्हें कितनी गहराई से जिया था!
घर के हर सुख-दुःख को भोगा था,
गाव के हर घर के आर-पार झाका था,
हर आदमी को भीतर तक देखा था,
हर ऋतु और हर मौसम को भरपूर जिया था,
खेतो में काम किया था,
बगीचों की मौसमी महक से लेकर
उनके फलो तक को भोगा और पहचाना था,
हर पेड का नाम था
और उसके साथ
अपना व्यक्तिगत रिश्ता था।
हर रास्ते, नाले, पोखर, डीह,
देवी-देवता के साथ
एक अपनापन बन गया था।
स्कूल का जीवन भी
पूरे मन से जिया था।
पड़ना-लिखना,
मारना-मार खाना,
खेलना-कूदना,
स्कूल से भागना
ये सभी सुख लिये थे।
वह एक छोटे से दायरे में
पूरा जीवन था,
वह आज के विस्तृत परिवेश के
जड़ीत जीवन से कितना अलग
स्कूल, परिवार, गांव,
प्रकृति, हाट बाजार,
पर्व-त्योहार सभी
एक-दूसरे में गुंथे हुए थे।
वह दुनिया अलग-अलग नही थी,
एक थी, संशलिष्ट थी, संपूर्ण थी।
तब गांव में
पढ़ाई- लिखाई का रिवाज कहां था,
बस, शुरू हो रहा था। सिर्फ
कक्षा चार पास कर लेना भी
कम बात नहीं थी।
मिडिल पास करना तो
बडी बात समझी जाती थी
0 टिप्पणियाँ