गौतम-महान दार्शनिक जिन्होंने संसार को नए विचार दिए

 
                              महर्षि गौतम जिन्होंने संसार को नए विचार दिए
गौतम-महान दार्शनिक 
जीवनकाल : लगभग 300 वर्ष ईसा पूर्व
सिद्धांत : 'तर्क सम्मत यथार्थवाद', सरल शब्दों में कहें तो 'ज्ञान का स्वरूप'। तमाम भारतीय दर्शन कल्पनापरक हैं, जबकि गौतम ने वस्तुवादी विश्लेषणात्मक दर्शन दिया है। उनके मुख्य अस्त्र तर्क है।
ग्रंथ : न्याय सूत्र

महर्षि गौतम को न्याय दर्शन का प्रवर्तक माना गया है। उनके जन्म को लेकर धार्मिक व दार्शनिक मान्यताएं अलग-अलग हैं। आपके द्वारा प्रतिपादित
न्याय या तर्कशास्त्र बीसों शताब्दियों से भारतीय दर्शन के उपवन में विशाल वटवृक्ष की तरह स्थापित है। तमाम भारतीय दर्शन केवल कल्पनापरक है, इसके विपरीत महर्षि गौतम ने वस्तुवादी विश्लेषणात्मक दर्शन का प्रतिनिधित्व किया है। गौतम का अमोद्य शस्त्र है तर्क । न्याय दर्शन का प्रमुख प्रति विषय ज्ञान का विश्लेषण है। इसके अंतर्गत ज्ञान का स्वरूप, साधन और उसकी प्रामाणिकता आदि पर विचार किया जाता है। महर्षि गौतम का कहना है कि 'बुद्धिरूपलब्धिता ज्ञानमिती अनर्थातरम्' अर्थात ज्ञान, बुद्धि और उपलब्धि में कोई अंतर नहीं है। जिसके द्वारा हम किसी विषय के स्वरूप से अवगत होते हैं। इस अवस्था को ही उपलब्धि कहते हैं। अतः ज्ञान विषय बोध या विषयोपलब्धि है। बोध बुद्धि से ही संभव है। अतः बुद्धि से ज्ञात उपलब्धि को ज्ञान कहते हैं। इस उपलब्धि हेतु विषयों की सत्ता ज्ञान की पूर्वमान्यता है। यही न्याय का वास्तुवादी
स्वरूप है। इसके अनुसार ज्ञान सदा-सर्वदा सविषयक होता है। ज्ञान के इस वस्तुवादी स्वरूप से पता चलता है कि ज्ञान व्यावहारिक है। जिसके द्वारा हम जगत में विषय बोध प्राप्त करते हैं।
       'न्याय' तर्क का पर्यायवाची शब्द है। अपने व्यापक अर्थों में प्रमाणों के द्वारा किसी विषय की समीक्षा करने की बौद्धिक प्रणाली का नाम न्याय हैं | इस दृष्टि से महर्षि गौतम का दर्शन किसी विषय की सत्ता को प्रमाणित करने अथवा विशुद्ध ज्ञान का विज्ञान है, जिसे प्रमाणशास्त्र भी कहा जाता है। गौतम की सम्मति में प्रत्येक ज्ञान के लिए चार प्रकार की सामग्री की आवश्यकता होती प्रमाता या ज्ञान प्राप्त कर्ता, प्रमेय या पदार्थ, प्रमिती या ज्ञान और प्रमाण अथवा ज्ञान प्राप्ति के साधन। गौतम की दृष्टि से ज्ञान दो प्रकार का होता है, अनुभव और स्मृति रूप । अनुभव दो प्रकार का होता है - प्रमा या यथार्थ एवं अप्रमा या अयथार्थ | प्रमा तत्वानुभव है और वस्तु का दूसरे रूप में अनुभव होना अप्रमा है। प्रमा के चार प्रकार हैं: प्रत्यक्ष, अनुमान, गौतम के न्याय दर्शन की सबसे बड़ी देने इसकी समीक्षात्मक तथा वैज्ञानिक अन्वेषण की तर्कशैली है।  
     संसार में प्रत्येक मनुष्य को सुख दुख का अनुभव होता ही रहता है, और सब इसी के लिये प्रयत्न करते हैं कि ये दुख को छोड़ कर सुख प्राप्त करें। परन्तु सुख प्राप्ती की इच्छा और दुख से घृणा होने पर भी न तो प्रत्येक को सुख ही मिलता है और नाही दुख से मुक्ति मिलती है। इस श्रद्भुत दशा को देख कर अर्थात् "सुख के प्राप्त करने और दुख से बचने का उद्योग करते हुए भी यह असफलता क्यों हुई। जब इस के कारणों पर विचार किया जाता है तो पता लगता है कि मनुष्य की सारी शक्ति परिमित हैं। अतः उस का ज्ञान भी परिमित है जिस वस्तु का सम्बन्ध होता है वह इन्द्रियों या मन द्वारा होता है और बहुत सी वस्तु ऐसी हैं जो इन साधनों से ज्ञात नहीं होतीं उन के ज्ञात होने का साधन बुद्धि है। यदि इन तीनो साधनों (मन, बुद्धि, इन्द्रिय) में से किसी एक में विकार या अन्तर आ जावे तो ज्ञान में भी अवश्य विकार या अन्तर आ जावेगा। जब ज्ञान में विकार हुआ तो उस का उपयोग भी ठीक नहीं होगा। उपयोग के ठीक न होने से उस का परिणाम या फल भी अवश्य उलटा होगा। इस से यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक कार्य के फल को यथार्थ रूप से प्राप्त करने के लिए उसका सद् उपयोग करना है और उपयोग ठीक करने के लिये ज्ञान का यथार्थ होना आवश्यक है।
       जहां किसी वस्तु का ज्ञान विपरीत होगा वहां उसका फल भी विपरीत होगा। अतः मनुष्य का परम कर्तव्य है कि वह प्रत्येक वस्तु को उपयोग में लाने से पूर्व उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के साधनों को प्राप्त करे। क्योंकि जिस सुनार ने सोने की परीक्षा के 'लिए कसौटी नहीं ली वह सोने की यथार्थ परीक्षा करने में असमर्थ है, ऐसा सुनार अपने व्यापार में लाभ नहीं उठा सकता और न वह सुनार कहलाने का अधिकारी है। मनुष्य शब्द का अर्थ भी यही है कि उसमें विचार हो। और जिसका उद्देश्य अपने जीवन में  विचारानुसार संसार के बाजार में वस्तुओं का खरीदना है। उनमें से जो वस्तु बिना विचारे खरीदी जाती हैं उनसे हानि भी बहुत होती है। पर जो वस्तु विचार कर खरीदी जाती है उस में हानि की बहुत कम सम्भावना है। इसी प्रकार जो मनुष्य अपने आत्मिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए बिना विचारे काम करेगा तो अवश्य बहुत दुख का अनुभव करेगा। और यदि यह भले प्रकार अन्वेषण करके कार्य करेगा तो अवश्य मुक्ति प्राप्त होगी। यथार्थ तथ्य ज्ञान प्राप्ति के साधनों में न्याय शास्त्र सबसे श्रेष्ट और आवश्यक जो मनुष्य न्यायदर्शन को नही जानता वह किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। 
      जो मनुष्य न्याय शास्त्रको ठीक प्रकार से जान जाता है उसको कोई चालाक धोखा नहीं दे सकता सांप्रदायिक तथा वैज्ञानिक विद्याओं में जो बातें साधारण भी दृष्टि में कठिन मालूम होती वह इस दर्शन के छात्र को अति सुगम है और जिन प्रश्नो का उत्तर देने में संसार के बड़े-बड़े मत चकराते है। उसका उत्तर इस विज्ञान का ज्ञाता बड़ी सुगमता से दे सकता है। सम्प्रति आध्यत्मिक सिद्धान्तों के ज्ञानाभाव से मनुष्यों में अनेक प्रकार के भगड़े हो रहे हैं। और इस दर्शन के न जानने से वे भगड़े समय समय पर विकट रूप धारण कर लेते हैं। अतः न्याय दर्शन का यथाशक्ति अध्ययन कर हम यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन में आत्मिक शांति का साक्षात अनुभव कर सकते हैं।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ