कहने को कुछ मन नहीं...

कहने को कुछ मन नहीं...

ख़ामोश चेहरे

मुख पर पहरे

बाहर सन्नाटा, 

भीतर सूनापन

खामोशी के दौर में

मन में कैसा शोर है

शायद किसी ने छला है

बाहर सबकुछ ठीक-ठाक

भीतर शायद जलजला हैं।


शाम से लेकर भोर तक

मन रीता-रीता रहता 

फ़टी पुरानी यादों को

हर पल सिलता रहता

लाखों भाव भरे मन में

कहने को बहुत कुछ 

फीर भी ना जाने क्यों

कहने को कुछ मन नहीं है।


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