पुराने जमाने में आग लड़ाई का झंडा थी...
पुराने पहाड़ी लोग कैसे लेते थे दुश्मन से लोहा।
पहाड़ी लोग सुनाते हैं कि पुराने वक़्तों में अगर दुश्मन हमारी सीमा में घुस आते थे तो सबसे ऊंचे पहाड़ पर मीनार जितनी ऊंची आग जला दी जाती थी। इसे देखते ही सभी गांव अपने अलाव जला लेते थे। यही वह जोरदार पुकार होती थी जो पहाड़ी लोगों को अपने जंगी घोड़ों पर सवार होने को प्रेरित करती थी। हर घर से घुड़सवार रवाना होते थे, हर गांव से तैयार दस्ते रवाना होते थे। आग के आह्वान पर घुड़सवार और पैदल लोग दुश्मन से लोहा लेने को चल पड़ते थे। जब तक पहाड़ों पर अलाव जलते रहते थे, गांवों में पीछे रह जानेवाले बूढ़ों, औरतों और बच्चों को यह मालूम होता था कि दुश्मन अभी हमारी सीमाओं में ही है। अलाव बुझ जाते तो इसका मतलब होता कि खतरा टल गया है और पूर्वजों की धरती पर फिर से शान्ति का समय आ गया है। सदियों के लम्बे इतिहास में पहाड़ी लोगों को बहुत बार पहाड़ों की चोटियों पर लड़ाई का संकेत देनेवाली इस तरह की आग जलानी पड़ी है।
इस तरह की आग लड़ाई का झण्डा भी होती थी और उसका आदेश भी। पहाड़ी लोगों के लिये यह आधुनिक तकनीकी साधनों - रेडियो, तार और टेलीफ़ोन का काम देती थी। पहाड़ी ढालों पर अभी भी ऐसी वनहीन जगहें देखी जा सकती हैं, जहां ऐसा लगता है मानो विराटकाय भैंसे लेटे हुए हों।
पहाड़ी लोगों का कहना है कि खंजर के लिये सबसे ज्यादा भरोसे की जगह म्यान है, आग के लिये चूल्हा और मर्द के लिये-घर। लेकिन अगर आग चूल्हे से बाहर आकर पहाड़ों की चोटियों पर भड़कने लगती है तो म्यान में चैन से पड़ा रहनेवाला खंजर खंजर नहीं और घर के चूल्हे के क़रीब बैठा रहनेवाला मर्द - मर्द नहीं।
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