हवस के जल्लाद...
समझ कर देखो
किसी का दर्द
हर कोई
बोलकर नहीं बताता
हर रोज
अखबार के पन्ने कहते
तार-तार होते रिश्तों की कहानी।
बाहरी दुश्मनों से
लड़ने से ज्यादा
अपने घर के दुश्मनों से
बचना मुश्किल है।
नहीं सुनी
बेटी की फरियाद
जब माँ ने बेटी को
दरिंदों के हवाले किया
ढह गई रिश्तों की बुनियाद।
क्या गांव क्या शहर
क्या ऑफिस क्या घर
गली मोहल्ले हर कोने में
ताक लगाये बैठे हैं
जहाँ देखो वहाँ
हवस के जल्लाद
सम्हाल कर रखना
अपनी फूल सी बेटियों को।
जब घर मे ही महफूज नहीं है बेटियां
आखिर कहां महफूज रहेगी बेटियाँ?
खुले समाज में उनकी हिफाज़त कैसे होगी?
कभी पिता, कभी रिश्तेदार
ऐसी रोज खबर आती अखबार में।
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