सौगात (पिता दिवस पर)

सौगात...
(पिता दिवस पर अवतार कृष्ण राजदान की कहानी)

हां, यह वही पत्थर है जो न जाने कब से हमारे ठाकुरद्वारे में है। चपटा-सा और चौरस ! लगभग दो गज लम्बा ! शिवलिंग के दायें ओर लकड़ी के एक बड़े फ्रेम के सहारे टिका हुआ । इसके चारों ओर फूल पत्तियों का भव्य अलंकरण है जो अब कहीं कहीं घिस गया है। फिर भी ये फूल-पत्तियां बहुत सुन्दर हैं। पार्श्व में स्याही है। पास वाले भाग में तीन चित्रों का चित्रांकन किया हुआ है। पहला चित्र एक नन्हे से बालक का है जो गोद में सिमटा निश्चिन्त रूप से अपनी माता के स्तनों से दुग्धपान कर रहा है। दूसरे चित्र में एक स्त्री और पुरुष की आलिंगनबद्ध आकृतियां खुदी हुई हैं और अंतिम में किसी का आखिरी सफ़र - चार-पांच आदमी एक शव को कपाट पर लिटाकर शमशान की ओर ले जा रहे हैं और उसके पीछे-पीछे कई शोकाकुल जन ! उनको देखकर ऐसा लग रहा है कि ये अपने किसी प्रिय को विदा कर रहे हैं।

यह चौरस पत्थर आज भी हमारे ठाकुरद्वारे में है। छोटी उम्र से आज तक मैं इसको यहीं देखता श्राया हूं। वैसे तब से आज तक यहां दीवारों की खूंटियों पर टंगे पुराने कलण्डरों के स्थान पर नये कलण्डर लगा दिये गये या ताक पर रखी मूर्तियों में कुछ विविध श्राकार-प्रकार की कलामय मूतियों की बढ़ोतरी की गयी, किन्तु यह चौरस पत्थर अपने स्थान पर से कभी न हटाया गया। यह जहां था, अब भी वहीं है।

घर में सर्वाधिक ज्यादा चहल-पहल इसी कमरे में रहती है। खासकर सुबह दस बजे तक । कोई आकर टीका लगाता है तो कोई अपने दोनों हाथों में कहीं से रंगारंग फूल लाकर
शिवलिंग पर चढ़ाता है। कोई सुबह से यहीं बैठकर गीता के आठों अध्याय समाप्त करता है। इस प्रकार यह ठाकुरद्वारा हमारे घर का मंदिर बन गया है। छुटपन से ही मैं यहां बड़े शौक से आता था। इसलिए नहीं कि यह ठाकुरद्वारा है और यहां भगवान की पूजा होती है। बल्कि इसलिए कि यहां रंगारंग मूर्तियां हैं- कलापूर्ण तथा आकर्षक । मूर्तियां क्या होती हैं तथा मूर्तिकला किसे कहते हैं- यह न मैं उस समय जान पाया था, न ही आज इसका ज्ञान है। अलबत्ता यह बात तो जरूर थी कि उस समय मैं इन मूर्तियों को बड़े ध्यान से देखता, खुश हो जाता तथा मचल उठता था। किन्तु ज्यों ही दिन बीत गये, मैं सोचते लगा कि यह चौरस पत्थर यहां किस लिए है ? इस बड़े भारी-से पत्थर को यहां रखने की क्या तुक ? इसने ठाकुरद्वारे की एक-तिहाई जगह घेर रखी है! यह न किसी देवी-देवता का आकार-रूप है, न ही यहां इसकी पूजा होती है। इस पर जिन चित्रों का रेखांकन किया हुआ है, उन्हें देखकर पूजा करने को दिल ही नहीं करता ।

कितनी बार मेरे दिल में श्राया कि इस चौरस पत्थर को ठाकुरद्वारे से बाहर निकाल दूं। लेकिन इसको छूने में डर-सा लगा। न जाने ऐसा क्यों हो रहा था ! शायद इसलिए, क्योंकि यह मेरे पिता जी को जान से भी प्यारा था ।

एक दिन पूजा करने के बाद जब मेरे पिता जी ठाकुरद्वारे से बाहर आ गये तो मैंने उनको ज्योंही कहा- "पिता जी ! इस चौरस पत्थर पर यह चित्रांकन किसने किया है ? इस पर नजर पड़ते ही दिल पर एक अजीब असर होता है।

मेरे पिता जी तबीयत से कुछ तेज थे उन्होंने गुस्से में कहा क्यों ?

"मैं सच कहता हूं पिता जी! इसको देख पूजा करने को दिल नहीं लगता जिस श्रद्धा के साथ पूजा करनी होती है, इस पर अंकित चित्रों को देखकर वह नहीं रहती" मेरा उत्तर ।

यह सुनकर पिता जी ने पहले मेरी तरफ देखा, फिर मां की ओर नजर दौड़ायी । कहने लगा- "यह चौरस पत्थर मुझे अपने पिता की एकमात्र निशानी रह गयी जो वह अपने पीछे छोड़ गया है। यही तू यहां से हटाने के लिए कहता है ?"

"लेकिन आवश्यकता भी क्या है इसके यहां रखने की। इस पर यह बेहूदा चित्रालंकरण मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता- मैं दरजवाब बोला ।

यह सुनकर पिता जी को बहुत गुस्सा श्रीया। उन्होंने मेरे गाल पर एक चपत जड़ मारी। कहने लगे- "अच्छा क्यों नहीं लगता?"

मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा। केवल आंखें झुकाकर नीचे फर्श की ओर देखने लगा। मां ने मेरी तरफ देखा । वह थर थर कांप गयी। गुस्से में पिता जी का मुंह लाल-लाल हो गया मानो किसी ने उस पर लाल स्याही पोत दी। यह देखकर मैं भी कांप उठा। मैं धीरे-धीरे मां के बगल में बैठकर नीचे सिर झुकाये सोचने लगा कि आखिर मैंने ऐसी कौन-सी बात कही है कि पिता जी को इतना गुस्सा चढ़ गया। इस बीच पिता जी कमरे से बाहर चले आये तो मां ने कहा- "तू क्यों बार-बार इनको यह चौरस पत्थर ठाकुरद्वारा से बाहर निकालने के लिए कहता है ?"

अबकी बार मैंने मां पर गुस्सा थूका। मैं गरज उठा- "हां, कहता हूं और बार-बार कहूंगा। मैं जो सच कहता हूं और ये एकदम गर्म हो जाते हैं। कहते हैं न, आजकल सच कहना पाप है और झूठ बोलना पुण्य ।"

"तो फिर सच कहते ही क्यों ?" मां ने कहा ।

"सच नहीं कहता मां। लेकिन मुझसे रहा नहीं जाता। जरा आप ही बताइये मां, हमारे घर में क्या कोई ऐसी जगह नहीं रह गयी जहां पर यह चौरस पत्थर रखा जाता । ठाकुरद्वारा में इसके रखने की क्या आवश्यकता ! माना कि यह पत्थर है। मगर यह तो किसी देवी-देवता का आकार-रूप नहीं कि इसकी पूजा करनी है। ऐसा कुछ नहीं है इसमें तिसपर भी देखो, क्या चित्रालंकरण किया हुआ है इस पर ! मां की गोद में बच्चा सिमटकर उसके स्तनों से दुग्धपान कर रहा है, स्त्री और पुरुष आलिंगनबद्ध रूप में और वह भी नंगे... वाह ! वाह ! क्या इसी की पिता जी पूजा करते हैं ?"

यह सुनकर मां पसीनों से तरबतर हो गयी। वह कुछ न कह सकी। एकदम गूंगी-सी हो गयी। फिर उठी और कमरे से बाहर आ गयी। मैं यहां अकेला रह गया। कुछ क्षण पश्चात् मैंने आंखों के सामने इस पत्थर को लाया स्याह ! चपटा-सा और चौरस ! चारों ओर फूल-पत्तियों से अलंकृत ! सामने तीन चित्रों का अंकन । पहले चित्र में एक नवजात शिशु मां की गोद में सिमटकर उसके स्तनों से मजे में दुग्धपान कर रहा है। दूसरा चित्र स्त्री-पुरुष का है जो एकदम नंगे हैं तथा एक-दूसरे के बाहुपाश में बद्ध चुंभन ले रहे हैं तथा तीसरे या अंतिम चित्र में किसी की अर्थी ले जा रही है। इसके पीछे-पीछे लोगों का एक बड़ा कारवां है।

समय को सच ही पानी का बहता दरिया कहा गया है। इसके बहते हुए पानी को रोकना किसी के बस की बात नहीं। अभी आज और कभी कल। दिन-रात के इस मिलन से इस बात का पता ही नहीं चल सकता कि कब महीने गुजर जाते हैं और कब सालों-साल बीत जाते। यह सिलसिला चलता है और हमेशा के लिए चलता रहेगा। इसी चलते सिल-सिला में एक दिन मेरी समझ में नहीं आया कि अचानक यह क्या हो गया। घर में सब सुन्न होकर रह गये। मैंने दायें-बायें देखा, घर में देखते-देखते हाहाकार मच गयी। सब चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगे। रोने का इतना शोर हो गया कि रात के उस गहन अंधकार में पक्षी भी पंख फड़फड़ाते हुए अपने घौंसलों से बाहर निकल आये। घर में मातम हो गया और यह मेरा पिता जी स्वर्गवास होने पर हो गया। इसमें सब सम्मिलित हो गये। सारा परिवार। मार-दोस्त- कुछ सच्चे, कुछ झूठे। घर में केवल एक फर्द की कमी हो गयी और वह अपने साथ घर की रौनक भी साथ ले गया ।

मेरा पिता अधिक समय तक बीमार नहीं रहा। बीमार होने के मात्र छः घंटे बाद ही वह स्वर्गवास हो गया ।

पिता का इस दुनिया से चले जाने के बाद मुझ पर मानो वज्ज्र-सी गिर पड़ी। मैं यह जान ही न सका कि अब मेरा भविष्य क्या होगा। लेकिन समय का चलता दरिया आखिर सबका पथ-प्रदर्शक बन जाता है। आज मुझे ऐसा लग रहा है कि पिता जी का इस दुनिया से चले जाने से मेरे जीवन का एक नया अध्याय शुरु हो गया। एक नयी दुनिया ! एक यहा वातावरण ! मुझे सब कुछ नया-नया-सा दिखने लगा ।

पिता के स्वर्गवास होने के बाद घर का प्रधान अब मैं ही बन गया। माता ने मुझे उनकी अल्मारी की कुंजी दे दी। इसमें कुछ कपड़े तथा काग़जात थे- मकान के काग़जात। माल-संपति से संबंधित कुछ कागजात ।

एक दिन मैंने अल्मारी खोली- अपने किसी मरे हुए प्रिय की चीजों को, जिन्हें उसने अपने हाथों सम्भालकर रखा हो, को देखकर आंखें गीली हो जाती हैं। कभी उन चीजों पर प्यार आता है कि उसकी थीं, कभी नफ़रत कि उसने दगा दे दी। अपने प्रिय की ये चीजें कितने प्यार से देखी जाती हैं मानो उसकी आत्मा इन्हीं में छिपी हुई हो। मुझे भी पिता जी की ये चीजें देखकर ऐसा ही महसूस हुआ। कौन सी चीज कब खरीदी थी, कहां खरीदी थी, कितने शौक से ली थी। पगड़ी कब बांधता था ! यह कोट-पतलून कितने चाव से पहनता था ! सिर पर यह रंगदार यह मकान कब बनाया था ! इसके कागजात भी इसी अल्मारी में थे और इसके साथ ही दो-चार ऐनक भी जो वह कभी-कभी लगाते थे ।
इन सभी चीजों को देखकर भी मेरा ध्यान इन सबकी ओर नहीं गया। मैंने इसमें केवल मकान के कागजात निकाले । ये सब एक बड़ी फाइल में सलीके के साथ रखे हुए थे। फाइल खोलकर ज्योंही में इन काग़जात को पढ़ने लगा तो पहले ही पृष्ट पर पिता जी ने मकान के सम्बन्ध में वसीयत की थी। कब ? यह न मुझे पता है, न ही मेरी माता को। इसमें इन्होंने मकान को दो भागों में बांटा है। जो भाग मेरे नाम लिखा है, उसके अन्तर्गत ठाकुरद्वारा भी आता है। अंत में लिखा है कि मुझे पूरी आशा है कि मेरे स्वर्गवास होने के बाद मेरी की हुई वसीयत पर अमल होगा ।

ठाकुरद्वारा- यह पढ़ते ही मैं चौंक-सा गया। आंखों के सामने एकदम वह पत्थर आया-स्याह, चपटा और चौरस ! चारों ओर फूल-पत्तियों से अलंकृत ! सामने तीन चित्तों का चित्रालंकरण !

पिछले बीस वर्षों मैं इस ठाकुरद्वारा में पूजा करने नहीं आता। इस चौरस पत्थर को देख कर मुझे यहां पूजा करने में मन की शान्ति नहीं मिलती यही कारण है कि मैं मंदिर में जा कर ही भगवान की पूजा करता ।

कुछ दिन इसी तरह बीत गये । आखिर मैं एक दिन ठाकुरद्वार के अन्दर आया । वैसे तो मैं यहां यह चौरस पत्थर हटाने के लिए आया। तभी तो मुझे मन की शान्ति मिलती थी न । तभी भगवान की पूजा-अर्चना करने में दिल लगता। मैं अपने-आपसे सोचने लगा कि उस पूजा करने का क्या सार जब दिल कहीं हो और दिमाग कहीं और। यह तो भगवान के साथ मखौल करने के बराबर होगा। हां, यदि यहां पूजा करूंगा तो पहले इस चौरस पत्थर को हटाना ही होगा ।

मैं ठाकुरद्वारा के अन्दर आया। मेरी नजरें एकदम इस चौरस पत्थर की ओर गयीं, लेकिन यह क्या ! इस को जमीन पर इस तरह किसने लिटाया हैं? मैने जीवन में पहली बार इसको इस तरह देखा । बहुत आश्चर्य हुआ मुझे। मैंने मृगशाला बिछाया तथा इस पर बैठ कर पूजा करने में तन्मय लगा । लेकिन मेरा ध्यान इस चौरस पत्थर की ओर था। यह उल्टा लेटा हुआ था । इसका पिछला भाग मुझे साफ दिख रहा था- काला स्याह ।

मैंने पूजा खत्म की। फिर उठा और मृगशाला को लपेट कर अपने स्थान पर रखा । इसके बाद चौरस पत्थर की बारी आयी। मैंने इसको यहां से हटाने की सोच ली। इसके हटाने से तो यहां एक बला हट जायेगी! क्या जरूरत है इसकी इस कमरे में। मैंने इसकी ओर एक बार फिर ध्यान से देखा। फिर इसको दोनों हाथों से उठाया। लेकिन लेकिन इसके नीचे यह पुर्जा ! यह क्या है। मैं एक दम चौंक-सा गया। मैंने इसको फिर अपने स्थान पर रखा और मेरे कांपते हाथ लिखा था-इस पुर्जा की ओर बढ़ गये। मैंने इसको खोला ।

प्यारे बेटे,

मेरा निधन होने के बाद यह चौरस पत्थर अपने स्थान पर से नहीं हटाना । इस कमरे में जो भी कलामय मूर्तियां हैं उन सब से बढ़ कर मुझे यह चौरस पत्थर अच्छा लगता है। मेरे बाद यह तुम्हारे हवाले है। इसकी सुरक्षा करना, पूजा करना। उस दिन तुमने पूछा था न कि इस पर जिन चित्रों का अंकन है, वह बेहूदा है। मगर मैं क्या कहता तुमको उस दिन, इन चित्रों का राज क्या है ! तुम तो नन्हें बालक थे न। उस समय तुम कुछ नहीं जान सकते थे। मगर आज समय तुम्हें समझायेगा कि ये चित्र क्या हैं- ये चित्र जीवन के तीन दौर के स्पष्ट उदाहरण हैं। जीना, जवानी और बुढ़ापा तथा इसके साय ही जीवन का अंतिम सफर । मतलब जहां से मनुष्य आता है, वहीं उसको जाना है। यही तो जीवन की वास्तविकता है। इसी को पूजना है। जीने के बाद जो जीवन की इस वास्तविकता को समझ नहीं पाता, यह तो कुछ नहीं पा सकता ।"

हां, यह तो वही पत्थर है- स्याह ! चपटा-सा और चौरस ! लकड़ी के बने एक बड़े फ्रेम के सहारे खड़ा किया हुआ। चारों ओर फूल-पत्तियों से अलंकृत । पास में तीन चित्रों का चित्रालंकरण ! पहले चित्र में एक नन्हा सा बालक मां को गोद में सिमटा निश्चिन्त रूप से उसके स्तनों से दुग्धपान कर रहा है। दूसरे चित्र में स्त्री और पुरुष की आलिंगनबद्ध आकृतियों का अंकन है तथा तीसरे और अंतिम चित्र में किसी का अंतिम सफ़र । भ्राज यह चौरस पत्थर हमारे ठाकुरद्वारा में उसी तरह खड़ा है जिस तरह पहले था। यह एक सौगात है जो पिता जी अपने पीछे मेरे लिए छोड़ गये ।

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