वट-सावित्री की पौराणिक कथा तथा वट-सावित्री पूजन विधान
वट-सावित्री कथा
मद्रदेश मे परम धार्मिक वेद-वेदाङ्ग का पारगामो और ज्ञानी एक अश्वपति नामक राजा था। समग्र वैभव होने पर भी राजा की पुत्र नहीं था। इस कारण दम्पति ने पुत्र के लिये सर-स्वती का जप किया। उस जप-यज्ञ के प्रभाव से स्वयं सरस्वती ने शरोर धारणकर राजा और रानी को दर्शन दिया और कहा-"राजन्, वर माँगो ।"
राजा ने प्रार्थना की- "आपकी कृपा से मुझको सव प्रकार का आनन्द है। केवल एक पुत्र ही की कमी है। आशा है, कि अब वह पूर्ण हो जायगी।" सावित्री ने कहा- "राजन् ! तुम्हारे भाग्य मे पुत्र तो नहीं है। पर दोनों कुलो की कीर्ति-पताका फहराने वाली एक कन्या अवश्य होगी। उसका नाम मेरे नाम पर रखना ।"
यह कहकर सावित्री अन्तर्द्धान हो गई।
कुछ काल के उपरान्त रानी के गर्भ से साक्षात् सावित्री का जन्म हुआ और नाम भी उसका सावित्री ही रक्खा गया।
जब सावित्री युवती हुई, तब राजा ने सावित्री से कहा- "बेटी ! अव तुम विवाह के योग्य हो गई हो। अपने योग्य वर तुम स्वयं खोज लो। मै तुम्हारे साथ अपने वृद्ध सचिव को भेजता हूँ।" जब सावित्री वृद्ध सचिव के साथ वर खोजने गई हुई थी, तब एक दिन मद्राधिपतिके स्थान पर अकस्मात् नारदजी आये। इतने ही में वर पसन्द कर के सावित्री भी आ गई और नारदजी को देखकर प्रणाम करने लगी। कन्या को देखकर नारदजी कहने लगे - "राजन् ! सावित्री के लिये अभी तक वर ढूँढ़ा या नहीं ?" राजा बोला- "वर के लिये मैने स्वयं सावित्री ही को भेजा था और वह वर को पसन्द करके इसी समय आई है।" तब तो नारदजी ने सावित्री ही से पूछा-"बेटी ! तुमने किस वर को विवाहने का निश्चय किया है?" सावित्री हाथ जोड़कर अति नम्रता से बोली- "युमत्सेन का राज्य रुक्मी ने हरण कर लिया है। और वह अन्धा होकर रानी के सहित वन मे रहता है। उसके इकलौते पुत्र सत्यवान् ही को मैने अपना पति स्वीकार किया है।" सावित्री के वचन सुनकर अश्वपति से नारदजी बोले - "राजन् ! आपकी कन्या ने बड़ा परिश्रम किया है। सत्यवान् वास्तव मे बड़ा गुणवान् और धर्मात्मा है। वह स्वयं सत्य बोलने वाला है और उसके माता-पिता भी सत्य ही बोलते हैं। इसी कारण उसका नाम सत्यवान् रखा गया है। सत्यवान् रूपवान्, धनवान्, गुणवान् और सब शास्त्रों में विशारद है। विशेष क्या कहूँ, उसके तुल्य संसार में दूसरा कोई मनुष्य नहीं है। जिस प्रकार रत्नाकर रत्नों का कोश है, उसी प्रकार सत्यवान् सद् गुणों का कोश है। परन्तु दुःख से कहना पड़ता है कि उसमे एक दोष भी बड़ा भारी है। अर्थात्, वह एक वर्ष की समाप्ति पर मर जायगा।"
सत्यवान् अल्पायु है, यह सुनते ही अश्वपति के सब विचार बालू की भीत की तरह नष्ट हो गये। उसने सावित्री से कहा-"बेटी ! तुमको और वर ढूँढ़ना चाहिए। क्षीणायु के साथ विवाह करना कदापि श्रेयस्कर नहीं।"
पिता के इस कथन को सुनकर सावित्री बोली- "अब मैं शारीरिक सम्बन्ध के लिये तो क्या, मन से भी अन्य पति की अभिलाषा नहीं करती। जिसको मैंने मन से स्वीकार कर लिया है, मेरा पति वही होगा, अन्य नहीं। कोई भी संकल्प प्रथम मनमें आता है और फिर वाणी में। वाणी के पश्चात् करना ही शेष रहता है-चाहे वह शुभ हो या अशुभ। इसलिये अब मै दूसरे को कैसे वरण कर सकती हूँ? यह आप ही कहें। राजा एक ही बार कहता है। पण्डितजन एक ही बार प्रतिज्ञा करते हैं, जिसको आजीवन निवाहते हैं। और यह कन्या तुमको दी, यह भी एक ही बार कहा जाता है, अर्थात् यह तीनों बाते। एक ही बार कही जातो हैं। सगुण हो या निर्गुण, मूर्ख हो या पण्डित, जिसको मै ने एकबार भर्त्ता कह दिया, फिर मेरी बुद्धि विचलित न हो, यही परमात्मा से प्रार्थना है। चाहे वह दीर्घायु हो, चाहे अल्पायु, वही मेरा पति है। अब मै अन्य पुरुष को तो क्या, तैतीस कोटि देवताओं के अधिपति इन्द्र को भी अंगीकार न करूँगी।"
सावित्री के इस निश्चय को देखकर नारदजी ने अश्वपति से कहा- "अब तुमको सावित्री का विवाह सत्यवान् ही के साथ कर देना चाहिये।"
नारदजी अपने स्थान को चले गये और राजा अश्वपति विवाह का समस्त सामान तथा कन्या को लेकर वृद्ध सचिव समेत उसी वन मे गया, जहाँ राजश्री से नष्ट, अपनी रानी और राजकुमार समेत एक वृक्ष के नीचे राजा द्युमत्सेन निवास करते थे । सावित्री-सहित अश्वपति ने राजा द्युमत्सेन के चरणों के छूकर अपना नाम बताया । द्युमत्सेन ने आगमन का कारण पूछा। तब अश्वपति बोले- "मेरी पुत्री सावित्री का आपके राजकुमार सत्यवान् के साथ विवाह करने का विचार है। इसमे मेरी भी सम्मति है। इस कारण विवाहोचित सम्पूर्ण सामग्री लेकर आप की सेवा मे आया हूँ।"
इस पर धुमत्सेन कुछ उदास होकर बोले-आप तो "राज्यासीन राजा है और मै राज्यभ्रष्ट हूँ- तिसपर भी रानी और हम दोनो अन्धे हैं। वन मे रहते हैं। और सर्वथा निर्धन भी है। तुम्हारी कन्या वन-वास के दुःखों को न जानकर ही ऐसा कहती है।"
अश्वपति बोले- "मेरी कन्या सावित्री ने इन सब बातो पर पहले ही विचार कर लिया है। वह स्पष्ट कहती है कि जहाँ मेरे श्वसुर और पतिदेव निवास करते हैं, वही मेरे लिये बैकुण्ठ है।"
सावित्री का इस प्रकार दृढ़ प्रण सुन कर धुमत्सेन ने भी उस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया। शास्त्र-विहित विधि से सावित्री का विवाह करके अश्वपति तो अपनी राजधानी को चले गये और उधर सावित्री सत्यवान् को पाकर सुखपूर्वक श्वसुर-गृह में रहने लगी ।
नारदजी ने जो भविष्य कहा था, सावित्री उससे बेखबर नहीं थी। उनके कथनानुसार एक-एक दिन गिनती जाती थी । उसने जब पति का मरण-काल समीप आते देखा तब तीन दिन प्रथम ही से वह उपवास करने लगी। तीसरे ही दिन उसने पितृ-देवों का पूजन किया। वही दिन नारदजी का बतलाया हुआ दिन था । जब सत्यवान् नित्य-नियमानुसार कुल्हाड़ी और टोकरी हाथ में लेकर वन को जाने के लिए तैयार हुआ, तब सावित्री ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की "भगवन्! आपकी सेवा में रहते हुए मुझको एक वर्ष हो गया। परन्तु मैंने इस समीपवर्ती वन को कभी नहीं देखा । आज तो मै भी आपके साथ अवश्य चलूँगी।"
यह सुनकर सत्यवान् बोला- "प्रिये! तुम जानती ही हो कि मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। यदि मेरे साथ चलना है तो अपने सांस-ससुर से आज्ञा ले आओ।"
इस पर सावित्री ने सास के पास जाकर आज्ञा ली और वह पति के साथ वन को चली गई।
वन में जाकर प्रथम तो सत्यवान् ने फल तोड़े। पुनः वह लकड़ी काटने के लिये एक वृक्ष पर चढ़ गया। वृक्ष के ऊपर ही सत्यवान के मस्तक मे पीड़ा होने लगी। वह वृत्त से उतरकर और सावित्री की जाँघ पर सिर रखकर लेट गया। थोड़ी देर के बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ मे पाश लिये हुए यमराज सामने खड़े है। प्रथम तो यमराज ने सावित्री को ईश्वरोय नियम यथावत् कहकर सुनाया। तदनन्तर बह सत्यवान् के अंगुष्ट-प्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चले गये। यमराज के पोछे-पीछे जब सावित्री बहुत दूर तक चली गई, तब यमराज ने उससे कहा- "हे पति-परायणे। जहाँ तक मनुष्य मनुष्य का साथ दे सकता है, वहाँ तक तुमने पति का साथ दिया । अब मनुष्य के कर्त्तव्य से आगे की बात है। अतः तुम को पीछे लौट जाना चाहिए।"
यह सुनकर सावित्री बोली- "यमराज ! जहाँ मेरा पति ले जाया जायगा, वही मुझे जाना चाहिए। यही सनातन धर्म है। पातित्रत के प्रभाव के कारण आप के अनुग्रह से कोई भी मेरी गति को रोक नहीं सकता।"
सावित्री की धर्म और उपदेशमयी वाणी सुनकर यमराज बोले- "हे सावित्री ! स्वर और व्यंजन आदि से ठीक तथा हेतु-युक्त तेरी इस वाणी से मै बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। इस कारण तू यही ठहर और सत्यवान के जीवन को छोड़कर अन्य चाहे सो वर माँग ले। तू जो माँगेगी, वही दूँगा।"
यमराज के वाक्यो को सुनकर सावित्री ने विचार किया-"संसार में धर्म-परायणा स्त्री का यही कर्त्तव्य हो सकता है कि पहले तो वह अपने श्वसुर-कुल का, फिर पितृ-कुल का कल्याण करे। तदनन्तर आत्म-हित-साधन में तत्पर हो। इसी भाव को हृदय में रखकर सावित्री बोली- "मेरे श्वसुर वन में रहते है और वे दोनों आँखों से अन्धे हैं। अतः आपकी कृपा से उनको दिखाई देने लगे, यह वरदान चाहती हूँ।"
इस पर यमराज ने सावित्री से कहा- "हे अनिन्दिते ! जो कुछ तूने माँगा, वह सब तुझको दिया गया। परन्तु तुझको जो मार्ग का कष्ट हो रहा है, उसे देखकर मुझको ग्लानि होती है। अतः तू यहीं ठहर जा ।"
यमराज के इस कृपापूर्ण आशय को समझकर सावित्री बोलो- "भगवान् ! जहाँ मेरे पतिदेव जाते हों, वहाँ उनके पीछे-पीछे चलने में मुझको कोई कष्ट या श्रम नहीं हो सकता। एक तो पति-परायणा होना मेरा कर्त्तव्य है। दूसरे आप धर्मराज हैं, परम सज्जन हैं। अतः सत्पुरुषों का समागम भी थोड़े पुण्य का फल नहीं है।"
सावित्रो के ऐसे धर्म तथा श्रद्धा-युक्त वचन सुनकर यमराज ने पुनः कहा- "सावित्री ! तुम्हारे वचनों को सुनकर मुझको बड़ी प्रसन्नता हुई। इसलिए तुम चाहो तो एक वरदान सुझ से और भो माँग सकतो हो।"
यह सुनकर सावित्री बोली- "बुद्धिमान् द्युमत्सेन (मेरे श्वसुर) का राज चला गया है। वह उनको पुनः मिल जाय और उनको सदैव धर्म में प्रीति रहे। यही मेरी प्रार्थना है।"
यमराज ने कहा- "तुमने जो कुछ कहा है, वह अवश्य होगा । परन्तु अब तुम आगे न चलकर यहीं ठहर जाओ।"
यह सुनकर सावित्री ने दीन-स्वर से कहा- "प्राणिमात्र मे अद्रोह तथा मन, वाणी और कर्म से सब पर अनुग्रह, यही सज्जन पुरुषों का मुख्य धर्म है। फिर न जाने क्यों आप अद्रोह, अनुग्रह को भूल मुझे पीछे लौटने को कहते है। मेरी समझ मे यह सज्जनों के योग्य कर्त्तव्य नहीं है।"
सावित्री के इस पाण्डित्यपूर्ण भाषण को सुनकर और अत्यन्त प्रसन्न होकर यम ने उसे तीसरा वर देने को इच्छा प्रगट की। उस समय सावित्री ने पितृ-कुल की भलाई को लक्ष्य मे रखते हुए कहा- "मेरी यही कामना है कि मेरे पिता को सौ पुत्र मिले।"
यमराज ने इस पर भी 'तथास्तु' कहकर सावित्री को सम-झाया- "तुम जो इस कंटकमय मार्ग से बहुत दूर तक आ गई हो, इसका मुझको बहुत दुःख है। तुमने जो तीसरा वर माँगा है, वह भो मैने तुमको दिया। किन्तु अब तुम पीछे लौट जाओ।"
सावित्रो ने कहा- "प्रभो! निकट और दूर ये दोनों बातें अपेक्षाकृत है। मेरा तो वही घर है, जहाँ मेरे पतिदेव हैं। फिर मै दूर किससे हूँ? यह मेरी समझ मे नही आया। आप सन्त हैं। अतः सन्त न कभी दुःखी होते है, न सुखी। वे तो अपने सत्य के बल से सूर्य को भी जीतते हैं, तपोबल से पृथ्वी को धारण करते है और शरीर को क्षण-भंगुर समझकर प्राणियों पर दयाभाव रखते है।
सावित्री की ऐसी युक्ति-प्रत्युक्तियों ने यमराज के अतःकरण में एक अद्भुत भाव उत्पन्न कर दिया। वे द्रवीभूत होकर बोले-"हे पतिव्रते ! तुम ज्यों-ज्यों मनोऽनुकूल धर्मयुक्त अच्छे पदों से अलंकृत और गम्भीर-युक्तिपूर्ण भाषण करतो हो, त्यों-त्यों तुम में मेरी उत्तम प्रीति बढ़ती जातो है। अतः तुम सत्यवान् के जीवन को छोड़कर एक वर और भी मुझसे माँग सकती हो ।
श्वसुर-कुल और पितृ-कुल का कल्याण हो चुकने के बाद अब अपनी भलाई का प्रश्न शेष था। परन्तु पति-परायणा स्त्री को अपने पति की आयु-वृद्धि के अतिरिक्त और क्या माँगने की इच्छा हो सकती है। यह सोचकर सावित्री ने चौथे वरदान को इस प्रकार से माँगा- "मुझको पति के बिना न तो। सुख की इच्छा है, न स्वर्ग की। न गत वैभव को और न बिना पति के इस तुच्छ जीवन की। तथापि आपकी आज्ञा की अवहेलना करना एक अप-राध समझकर एक प्रार्थना करती हूँ, सो पूर्ण कीजिए। वह यह कि सत्यवान् से मुझको सौ सन्तान प्राप्त हों। इस अन्तिम वर-दान को देते हुए यमराज ने सत्यवान् को अपने पाश से मुक्त करके सावित्री से कहा- "सत्यवान् से तुमको अवश्य सौ पुत्र होंगे।"
यह कहकर यमराज अदृश्य हो गये। इधर वटवृक्ष के नीचे जो सत्यवान् का शरीर पड़ा था, उसमे जीव का संचार होते हो वह उठकर बैठ गया । सावित्री ने उसे सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया और वे दोनों आश्रम को चले गये। उधर सत्यवान् के माता-पिता पुत्र और पुत्रवधू के वियोग से विह्वल हो रहे थे कि दैवयोग उन दोनों की आखें खुल गई। इतने में सावित्री और सत्यव भी आ पहुँचे। समस्त देश मे सावित्रो के अनुपम व्रत को ब फैल गई। राज के लोगों ने महाराज द्युमत्सेन को ले-जाच् राज-सिहासन पर बिठाया। 'सावित्री के पिता राजा अश्वप को भी यमराज के वरदान के अनुसार सौ पुत्र प्राप्त हुए। सावि ओर सत्यवान् ने शत पुत्र-युक्त होकर वर्षों तक राज किया अं तब वे बैकुण्ठ-वासो हुए । प्रत्येक सौभाग्यवती स्त्रो को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
वट-सावित्री पूजन विधान
ज्येष्ठ बदी तेरस को प्रातःकाल स्वच्छ दातून से दन्तधावन कर उसी दिन दोपहर के बाद नदी या तालाब के विमल जल में तिल और आमले के कल्क से केशों को शुद्ध करके स्नान करे और जल से वट के मूल का सेचन करे।
सूत-रोगिणी और ऋतु-मती स्त्री ब्राह्मण के द्वारा भी समग्र व्रत को यथा-विधि कराने से उसी फल को प्राप्त होती है। यह व्रत त्रयोदशी से पूर्णिमा अथवा अमावस्या तक करना चाहिये ।
वट के समीप में जाकर जल का आचमन लेकर कहे -"ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी अमुक बार में मेरे पुत्र और पति की आरोग्यता के लिये एवं जन्म-जन्मान्तर में भी विधवा न होऊँ इसलिये सावित्री का व्रत करती हूँ। वट के मूल मे ब्रह्मा, मध्य मे जनार्दन, अग्र भाग मे शिव और समग्र मे सावित्री हैं। हे वट ! अमृत के समान जल से मैं तुमको सींचती हूँ।" ऐसा कहकर भक्ति-पूर्वक एक सूत के डोरे से वट को बाँधे और गन्ध, पुष्प तथा अक्षतों से पूजन करके वट एवं सावित्री को नमस्कारकर प्रदक्षिणा करे और घर पर आकर हल्दी तथा चन्दन से घर की भीत पर वट का वृक्ष लिखे। हस्तलिखित वट को सन्निध में बैठकर पूजन करे और संकल्पपूर्वक प्रार्थना करे - "तोन रात्रि तक मे लङ्घन करके चौथे दिन चन्द्रमा को अर्थ देकर तथा सावित्री का पूजनकर, यथाशक्ति मिष्ठान्न से ब्राह्मणों को भोजन कराकर पुनः भोजन करूँगी। अतः हे सावित्री ! तू मेरे इस नियम को निर्विघ्न्न समाप्त करना।"
वट तथा सावित्री का पूजन करने के बाद सिन्दूर, कुमकुम और ताम्बूल आदि से प्रतिदिन सुवासिनी स्त्री का भी पूजन करे। पूजा के समाप्त हो जाने पर व्रत की सिद्धि के लिये ब्राह्मण को फल, वस्त्र और सौभाग्यप्रद द्रव्यों को बाँस के पात्र मे रखकर दे और प्रार्थना करे।
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