डिग्रीयों की फाइल में दबे सपने
फिर झूठी आस लिए
आ धमकते बड़े सबेरे
आधे अधूरे अनमने सपने
उसको रोज जगाने
कहते आज तो काम मिलेगा।
वह निकलता बड़े सबेरे
कुछ खाए
कुछ अधभरा पेट लिए
चक्कर लगाता
सुबह से शाम तक
इस ऑफिस से उस आफिस
हाथ में डिग्रीयों की फाइल लिए।
और लौट आता शाम को
टूटे सपनों की बारात लिए
वही निरासा, वही हताशा
बिखरे-बिखरे बाल
थकी मांदी सी चाल
मत्ये पर शिकन,
आँखों में चिंता की झलक,
एक विवशता से भरी शाम।
" अब रात है।"
कैसे वह अपने आपको समझा रहा
मन ही मन कहा,
" रात के गुजर जाने पर सूरज निकलेगा।
दिन प्रकाशमान हो जाएगा,
रोशनी हो जाएगी।
वही कल का दिन होगा...."
करवट बदली
धीरे-धीरे नींद टूटी,
उठकर बैठा
एक निगाह कमरे में देखा
सब कुछ हमेशा जैसा
बेतरतीब एक लंबी सांस अपने-आप निकली
प्रश्नभरी आँखों से देखा,
वही 'उदासी, दुख, विषाद निराशा'
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