राजधर्म


    आज हम राम के आदर्श की बात करते हैं, राम-राज्य के गीत गाते हैं। परन्तु हमारे जीवन में राम के स्थान में रावण बोलता है या राम। यदि वर्तमान युग में राजाओं के जीवन में राम का आदर्श उतरा होता तो कोई कारण नहीं था, कि उन्हें राज- तख्त से नीचे उतारा जाता। परन्तु वे अपने धर्म, कर्तव्य एवं न्याय-नीति को भूलकर आमोद-प्रमोद में लग गए थे। अपने मौज-मजे के लिए जनता को लूटने-खसोटने लगे थे। उसी का परिणाम है, कि उन्हें विवश होकर सब कुछ छोड़ना पड़ा।

                राजधर्म

राजधर्म का अर्थ है - 'राजा का धर्म' या 'राजा का कर्तव्य'। राजवर्ग को देश का संचालन कैसे करना है, इस विद्या का नाम ही 'राजधर्म' है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजधर्म की चर्चा 
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ (अर्थशास्त्र 1/19)
(अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।)
तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।
स्वधर्मस्य सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति॥ (अर्थशास्त्र 1/3)
(अर्थात्- राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।) एक राजा का धर्म युध भूमि में अपने दुश्मनों को मारना ही नहीं होता अपितु अपने प्रजा को बचाना भी होता है
            
                 कर ( TAX ) का उद्देश्य :

         कर ( Tax) लेने की परम्परा तब से ही चली आ रही है, जब से शासन तन्त्र का प्रारम्भ हुआ है। क्योंकि राजा प्रजा के हित के लिए राज्य की व्यवस्था करता है। प्रजा को संकट से बचाने, उसकी चोर डाकुओं से रक्षा करने तथा राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने का सारा उत्तरदायित्व राजा पर रहता है। और इस दायित्व का पालन करने के लिए धन की आवश्यकता रहती है। इसलिए कोष का संग्रह वह जनता की बीमारियों गरीबी, बेकारी, अशिक्षा एवं अभाव को दूर करने के लिए करता है। उसकी पूर्ति राजा प्रजा पर कर ( Tax) लगाकर करता है परन्तु राजा को यह अधिकार नहीं है, कि जनता के परिश्रम से प्राप्त पैसे को अपने आमोद-प्रमोद में पानी की तरह बहा दे। इस सम्बन्ध में भारतीय संस्कृति के महान महाकवि कालिदास ने कहा है-जिस प्रकार सूर्य अपनी सहस्र रजत-रश्मियों के द्वारा सागर में से पानी खींचता है, परन्तु उसे अपने पास संग्रह करके न रखकर वर्षा के रूप में उससे सहस्र गुणा अधिक जल बरसा देता है, उसी प्रकार राजा टेक्स (Tax)) के द्वारा प्रजा से जितना धन लेता है, उससे अधिक वह प्रजा की सेवा करता है और उसके अभावों को दूर करके उससे अनेक गुणा अधिक लाभ प्रजा को देने का प्रयत्न करता है"।
        इससे यह स्पष्ट होता है, कि राजा के लिए कर लेना पाप नहीं है, पाप है उसका दुरुपयोग करना। प्रजा से लिए जाने वाले कर-(Tax) का प्रजा के हित में ही उपयोग करना, राज-धर्म है। जब राजा का व्यवहार इस तरह होता है, तब उसे प्रजा का भी पुरा सहयोग मिल जाता है। जिस राज्य में एवं जिस राष्ट्र में राजा और प्रजा अथवा सरकार और जनता का पारस्परिक सहयोग रहता है, वही राज्य एवं वही राष्ट्र प्रगति कर सकता है। 
          
              न्याय परायणता 

      राजा का महत्व एवं गौरव उसकी न्याय परायणता में है। जैसे- आकाश की शोभा सूर्य और चन्द्र से है। सरोवर की सुन्दरता कमलों से है कमल का महत्व सौरभ से है। उसी प्रकार राजा की शोभा उसके रूप-रंग से नहीं, न्याय से है। न्याय-नीति ही राजा का भूषण है और राज्य में सब व्यक्तियों की बिना किसी भेदभाव के समान रूप से सुव्यवस्था हो और सबको समान रूप से न्याय मिल सके, इसलिए राजा को सिहासन पर बैठाया जाता है, अथवा प्रजा तन्त्र के युग में आज प्रधान मंत्री को चुनकर जनता उसे शासन की कुर्सी पर बैठाती है परन्तु न्याय की रक्षा करने वाला शासक वर्ग भले ही वह राजा हो, मुख्यमंत्री हो, प्रधानमंत्री हो या अन्य कोई हो, जनता का शोषण करके अपने घर को भरने में लग जाता है, तब देश का उद्धार नहीं हो सकता क्योंकि ऐसे में चारों और रिश्वत घूस एवं चोर बाजार चलता रहता है। न्यायालयों में न्याय के नाम पर अनेक बार न्याय का गला घोंट दिया जाता है। पैसा देकर अन्यायी एवं दुष्ट व्यक्ति भी छूट जाता है और न्याय-निष्ठ न्याय के बल पर भी पराजित हो जाता है। अतः जब तक शासक वर्ग में प्रामाणिकता, ईमानदारी एवं कर्तव्य परायणता नहीं आएगी, तब तक देश का विकास हो सके ऐसा कदापि संभव नहीं है।
      कहने का अभिप्राय यह है, कि न्याय निष्ठा, प्रामाणिकता एवं नैतिकता ही राजा का सच्चा आभूषण है। जिस राज्य एवं राष्ट्र की आधारशिला न्याय और नीति पर खड़ी है, उसका कदापि पतन नहीं हो सकता। राजा का यह कर्तव्य ही नहीं, धर्म है, कि वह अपने राज्य में रहने वाली प्रजा के जीवन को विकसित करने में पूरी शक्ति लगा दे । राज्य की व्यवस्था इस प्रकार हो, जिससे राज्य में कोई दुःखी न रहे, राज्य में चोरी-डाका न पड़े, राज्य में व्यक्ति बेकार न रहे, राज्य में बीमारी कम हो और राज्य में कोई व्यक्ति भूखे पेट न सोए। यह राज्य के अधिकारी, राजा एवं शासक वर्ग का कर्तव्य है, कि वह प्रजा के साथ ऐसा व्यवहार करे, कि शासक वर्ग और जनता एक-दूसरे के साथ सहयोग करना सीखें। एक-दूसरे के सहयोग से देश का विकास हो सकेगा ।

      कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि प्रजा अपने कर्तव्य का पालन करे और शासकवर्ग अपने कर्तव्य का परिपालन करे । राजा और प्रजा दोनों अपने-अपने कर्तव्यों को समझकर जब उनका परिपालन करेंगे, तभी देश का विकास होगा, और तभी वह अपने खोए हुए गौरव को पुनः प्राप्त कर सकेगा । 


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