बुदनी (लघुकथा)


(विश्व मजदूर दिवस पर लघु कथा)


बुदनी 
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        सेठजी का आलीशान बंगला है। सामने लाना लगी है। एक छोटा सा गार्डन भी है जिसमें नई नवेली सेठानी रोज सुबह शाम टहलने आती है। वह कुछ समय टहलती और वापस बंगले के अंदर चली जाती। वहीं लान में सेठजी द्वारा एक अतिरिक्त कक्ष का निर्माण कराया जा रहा है। वहाँ काम करने आने वाले मजदूरों के कारण दिनभर कुछ न कुछ चहल पहल हुआ करती। सेठानी दिन में अक्सर खिड़की से काम करते मजदूरों देखा करती जिसमें उसकी नजर काम पर आने वाली महिला पर ही टिकी रहती थी। उस महिला मजदूर का नाम बुदनी था। वह अपने साथ एक तीन महीने के बच्चे को भी साथ लाती। आते ही पहले एक साड़ी के टुकड़े को अपनी कमर व गले मे बांध कर एक झोली बनाती, उसमें अपने तीन माह के बच्चे को बिठाती और काम मे लग जाती। कभी सिर पर ईंटे रखकर लाती तो कभी रेत सीमेंट की तगारियाँ देती। जब बच्चा रोता वह काम करते-करते ही उसको दूध पिला देती। जब कभी वह थोड़ा सुस्ताने लगती तो कारीगर जोर-जोर से चिल्लाने लगता। कहता कल से तू अपने बच्चे को साथ मे मत लाया कर। वह कुछ नही कहती और चुपचाप अपना काम करती रहती।           
   नई सेठानी जब भी वहां से टहलते हुए गुजरती वह बुदनी से जरूर कुछ न कुछ बात करती। सेठानी को बुदनी से कुछ लगाव सा हो गया था। बातों-बातों में सेठानी ने उससे पूछा कि तू कहाँ रहती है तेरा घर यहाँ से कितनी दूर है। तो उसने बताया कि वह शहर से दूर खुले में झोपड़ी बना कर रहती है। उसका एक तीन वर्ष का लड़का भी है उसे उसकी सास संभालती है। उसका पति कुछ काम धाम नही करता है। रोज शाम को मेरे से मजदूरी के कुछ पैसे लेता है और दारू पीकर पड़ा रहता है। रही बात घर की तो उसने कहा कि सेठानी जी हम मजदूर है हमारे घर थोड़ी हुआ करते। हमारे घर तो चलते फिरते रहते हैं । जहां काम करते वहां झोपड़ी बनाली। काम खत्म घर खत्म। फिर सेठानी ने पूछा गर्मी, ठंड हवा, पानी को खुले में कैसे सह लेते। क्या तुम्हें तकलीफ़ नही होती है? तब बुदनी कहती नहीं सेठानी जी हम मजदूर है, हम गरीब है हमारे घर नही होते। हमें गर्मी, ठंड, हवा, पानी से कुछ भी तकलीफ नही होती। हमारे जिंदा रहने और मर जाने से यहाँ किसी को कोई फर्क नही पड़ता।   
तभी कारीगर जोर-जोर से चिल्लाने लगता 'बुदनी-बुदनी' और तभी जी आई कहकर बुदनी काम मे लग जाती। 
        सेठानी अंदर जाकर अपना टीवी चालू कर समाचार देखने लगती है। तभी नेता जी भाषण देते दिखाई देते हैं कि हमारी सरकार गरीबों की सरकार है। हमारी सरकार मजदूरों की सरकार है। हम गरीब और मजदूरों के हित में काम करने वाले लोग है और तभी अंत मे सभी को विश्व मजदूर दिवस की बधाई देकर अपना भाषण समाप्त कर देते है। और तभी बाहर काम करती बुदनी को देख सेठानी टीवी बंद कर देती है। वह सोचने लगती की नेता जी सच बोलते है या झूठ।
तब उसकी नजर सामने पड़े अखबार में लिखी एक कविता पर पड़ती है जो आज विश्व मजदूर दिवस पर लिखी गई है। और वह पढ़ने लगती है।

(विश्व मजदूर दिवस पर कविता)
कविता-वह मजदूर है...
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वह मजबूर है
क्योंकि वह मजदूर है
मजदूर का बच्चा
अभी दुनियाँ में आए
आठ दिन भी नहीं हुए
जाता 
काम पर माँ के साथ 
दूध पीते बच्चे को
कमर में बाँधे
सिर पर 
ईंटों का बोझ लादे
माँ दिनभर काम करती
जब-जब बच्चा रोता
वह पुचकारती
दुलारती
दूध पिलाती 
काम करते-करते
वह मजदूर जो 
रोज काम पर जाता है
लाता है
बनाता है
खाता है
अपने बच्चों को खिलता है
गर्मी हो
ठंड हो
या हो बरसात
उसको तो खाना तभी मिलेगा
जब वह काम पर जायेगा
पात्रता नहीं उसे
किसी प्रकार के अवकाश की
ना ऐच्छिक अवकाश
ना आकस्मिक अवकाश
ना सार्वजनिक अवकाश
ना मातृत्व अवकाश
ना पितृत्व अवकाश
वह मजदूर है
अभी उसकी 
उम्र ही क्या है
पढ़ने की
लिखने की
खेलने की
मगर माँ के साथ ईंट उठता है
होटल में बर्तन धोता है
वह बाल मजदूर है
जब मैं
देखता हूँ 
कुछ ऐसा होते
अपने आसपास
फँस जाता हूँ
विचारों के अंतर्नाद में
रोक नहीं पाता मैं
अपनी कलम को
चल पड़ती वह अपने आप
कुछ प्रश्न लिए उत्तर की तलाश में।
क्या तुम्हें भी ऐसा कुछ होता है?
और कविता में सेठानी को बुदनी नजर आती है। जो सरकार और नेताओं की कथनी और करनी को सार्थक करती दिखाई देती है। तभी बुदनी की छुट्टी हो जाती और वह अपने घर को लौट जाती है।


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1 टिप्पणियाँ

Sudha Devrani ने कहा…
बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी कहानी