किशोरियों की सुकोमल भावनाओं का पर्व संजा

क्या है संजा पर्व?

किशोरियों की सुकोमल भावनाओं का पर्व संजा।

नानी सी गाड़ी रुड़कती जाए / रुड़कती जाए / ओकम बैठ्या संजा बाई, संजा बाइ/घाघरो धमकाता जाए/चूड़िलो चमकाता जाए/बिछिया बजाता जाए/नथनी झलकाता जाए। यह गीत श्राद्ध पक्ष में निमाड़ मालव की किशोरियां द्वारा गया जाता है।


तब नवकिशोरियों में सुकोमल मन में प्रश्न उठता है कि कौन है यह संजा? जो छोटी-सी गाड़ी में बैठकर ससुराल जा रही है जिसका रंगीन लहंगा चमक रहा है, चूड़ियां चमक रही हैं, बिछिया बज रही हैं। नथनी का मोती विशेष शोभा बिखेर रहा है। गाड़ी के हिलने-डुलने से उसका संपूर्ण श्रृंगार अस्त-व्यस्त हो रहा है, ऐसे में उसकी सुंदरता और निखर आई है। संजा वास्तव में एक नवकिशोरी है, जिसका विवाह अभी-अभी हुआ है, जो ससुराल जा रही है। संजा तो चित्र पर्व ही है। संजा पर्व निमाड़ मालवा के पारंपरिक लोकचित्रों में सबसे अलग स्थान रखती है। एक ऐसा चित्र पर्व जिसमें कुंवारी लड़कियां ही हिस्सा लेती है।


प्रतिवर्ष भाद्रमास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक बालिकाएं रंगीन कल्पनाओं के साथ यह पर्व मनाती हैं। जब वर्षा से सारी धरती धुल जाती है और आकाश निरभ्र हो जाता है, पश्चिम आकाश में रंगीन संध्याएं उतरने लगती हैं, ऐसे सुहावने मौसम में मालवा की किशोरियों का मनपसंद पर्व संजा का आगमन हो जाता है। कुंवार के महीने में श्राद्धपक्ष में जब पितरों को याद किया जाता है, तब संजा का पर्व मनाया जाता है। श्राद्ध के सोलह दिनों में लड़कियां संजा सहेली की सोलह पारंपरिक आकृतियां गोबर, फूल, पत्ती और पन्नियों से बनाती हैं। संजा स्मृतियों और आगत के अद्भुत संगम का पर्व है। एक तरफ पुरखों की यादें हैं तो दूसरी और किशोरियों के मन में विवाह की कामना।


संजा देवी से योग्य वर की कामना करतीं ये किशोरियां, संजा की एक दिन की आकृति, दूसरे दिन मिटा देती हैं और फिर अगले दिन एक नई आकृति बनती हैं। सर्जन और विसर्जन का संजा एक अद्भुत पर्व है। अपने हाथों से बनाई गई सुंदर आकृतियों का पहले सृजन, फिर अपने ही हाथों से भरे मन से उसी आकृति का मिटाना और उस पर नया सृजन करना, सोलह दिन यही क्रम जारी रहता है। संजा की सोलह आकृतियां संजा का सोलह श्रृंगार बन जाती है।


हर दिन बनाई जाने वाली आकृतियों की निश्चित तिथि और क्रम होता है जैसे पूर्णिमा को पूनम पाटला, एकम को पांच पांचा, चांद सूरज, दूज को बीज, तीज को छाबड़ी, चौथ की बिजौरा, पंचमी को गौर बेसन्या, कुंवारा-कुंवारी, छठ को चौपड़, सप्तमी को घेवर, सप्तर्षि, अष्टमी को अठ पंखुड़ी को फूल, नगाड़ा जोड़, नवमी को डोकरा डोकरी, दशमी को पंखा ग्यारस को केले का पेड़, बारस को घुघरा, मोर मोरनी, त्रयोदशी को किला का कोट बनाया जाता है, उसमें गाड़ी, खोड़ीया बामण आदि बनाएं जाते हैं। हैं। तेरस से किलाकोट में आकृतियों को मिटाते नहीं है, बल्कि उसमें और आकृति बनाते चलते हैं। चौदस को भी किलाकोट - में और भी आकृतियों को पूरित करते हैं। लगभग सभी आकृतियां और अलंकरण उसी दिन पूरा कर लिया जाता है। इस दिन पतलीपेमा, जाड़ी जसोदा, जलेबी की जोड़, ढोली, निसरनी, मेहतरानी, रिद्धि-सिद्धि, घट्टी, चांद-सूरज, घड़ी, चौपड़, हाथी, घोड़ा, कौवा, ऊंट, तोता-तारे, काठी, सिंगोड़ा, सिपारा आदि की अनेक आकृतियां बालिकाओं के हाथों की नन्ही नन्ही अंगुलियों से आकार लेती हैं। ऐसा लगता है जैसे सारी सृष्टि संजा में उतर आई है।


पूरा किलाकोट बन जाती है तो ऐसा लगता है जैसे सजा का भव्य चमकदार भवन हो जिसमें केवल संजा का राज हो। एक तरफ चांद-सूरज दमकते हैं। दूसरी तरफ मेहतरानी और ढोली को भी शामिल किया जाता है। समाज में सबका सम्मान बराबर होता है, कोई ऊंच-नीच नहीं, बिना भेदभाव के इन छोटी-छोटी बालिकाओं ने मेहतरानी और ढोली को मिथक बना दिया अपने सृजन से। संजा सुकोमल भावनाओं का अद्भुत सृजन है। जहां प्रेम के सिवाय दूसरा कोई नहीं है। घृणा-नफरत की वहां जगह नहीं है। एक भोलापन झलकता है, इन संजा चित्रों में।


किशोरियों का स्वप्निल संसार है संजा। न जाने कितने सपने बुनती हैं, निमाड़ मालवा की लड़कियां संजा के चित्रों के माध्यम से, फूल-पत्तियों की कोमलता की तरह गोबर में कला की निष्पत्ति की तरह। संजा के लिए जैसे पूरा गांव एक कुटुम्ब हो जाता है। गवली उसका भाई बन जाता है, माली का लड़का उसके लिए लाल-लाल फूल लाकर दे देता है। संजा को कोई कमी नहीं है। अभी-अभी जिसका बचपन विदा हुआ है अभी भी वह बचपन की स्मृतियों में खोई हुई है, ऐसे में उसे ससुराल जाना पड़ता है। बचपन का स्वप्न जैसे टूट जाता है, इस यर्थाथ को संजा का मन एकदम से स्वीकार नहीं कर पाता। इस पर सहेलियां उसे तरह-तरह की सुहाग की चीजें देकर मनाने की कोशिश करती हैं। सहेलियां संजा की शक्ति होती है। संजा जितना चित्र पर्व है, उतना ही गीत पर्व भी है। प्रतिदिन संजा के सामने बैठकर लड़कियां घर-घर जाकर शाम के समय संजा के पांच-पांच गीत गाती हैं। सर्वपितृ अमावस्या की शाम संजा की विदाई होती है। लड़कियां समूह में संजा गाती हुई किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर देती हैं।


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