हरतालिका-व्रत
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तीज हस्त नक्षत्र-युक्त होती है। उस दिन व्रत करने से सम्पूर्ण फलों की प्राप्ति होती है। एक बार महा-देवजी ने पार्वती से उनके पूर्व जीवन की याद दिलाते हुए इस व्रत के माहात्म्य की जो कथा कही थी वह इस प्रकार है-कथा - उत्तर दिशा में हिमालय नाम का पर्वत है। वहां गंगाजी के किनारे बाल्यावस्था में तुमने बड़ी कठिन तपस्या की थी। बारह वर्ष पर्यन्त अर्द्ध-मुखी (उलटे) टंगकर केवल धूम्रपान पर रहीं। चौबीस वर्ष तक सूखे पत्ते खाकर रहीं । माध के महीने में जल में वास किया और वैशाख मास में पंचधूनी तपीं। श्रावण के महीने में निराहार रहकर बाहर वास किया । इस प्रकार तुमको कष्ट सहते देखकर तुम्हारे पिता को बड़ा दुःख हुआ । उसी समय नारद मुनि तुम्हारे दर्शन के लिए वहां गये । तुम्हारे पिता हिमालय ने अर्घ्यपाद्यादि द्वारा विधिवत् पूजन करके नारद से हाथ जोड़कर प्रार्थना की- "हे मुनिवर ! किस प्रयोजन से आपका शुभागमन हुआ है, कृपाकर आज्ञा कीजिए ?" तब नारदजी बोले- "हे हिमवान् ! मैं श्रीविष्णु भगवान् का भेजा हुआ आया हूं। वह आपकी कन्या के साथ विवाह करना चाहते हैं । यह सुनकर हिमालय ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- "यदि विष्णु भगवान् स्वयं मेरी कन्या के साथ विवाह करना चाहते हैं, तो इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है।" यह सुनकर नारदजी विष्णु-लोक में गये और विष्णु भगवान् से बोले कि मैंने हिमालय की पुत्री पार्वती के साथ आपका विवाह निश्चय किया है। आशा है, कि आप उसे स्वीकार करेंगे ।
इधर नारदजी के चले जाने पर हिमालय ने तुमसे कहा कि मैंने श्रीविष्णु भगवान् के साथ तुम्हारा विवाह निश्चय किया है।
तुमको पिता का यह वचन बाण के समान लगा। उस समय तो तुम चुप रहीं, परन्तु पिता के पीठ फेरते ही अति दुःखी होकर तुम विलाप करने लगीं । तुमको अत्यन्त व्याकुल और विलाप करते हुए देखकर एक सखी ने तुमसे तुम्हारे दुःख का कारण पूछा ।
तुमने कहा कि मेरे पिता ने विष्णु के साथ मेरा विवाह करना निश्चय किया है, परन्तु मैं महादेवजी के साथ विवाह करना चाहती हूं, इसलिए अब मैं प्राण त्यागने के लिए उद्यत हूं । तू कोई उचित सहायता दे । तब सखी बोली कि प्राण त्यागने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तुमको ऐसे गहन वन में ले चलती हूं जहां तुम्हारे पिताजी को तुम्हारा पता भी न मिलेगा ।
ऐसी सलाह करके सखी तुमको घोर सघन वन में लिवा ले गई । जब हिमालय ने तुमको घर में न पाया तब वह इधर-उधर खोज करने लगे, पर कहीं कुछ पता न चला। इससे हिमालय को बड़ी चिंता हो गई कि नारदजी से मैं इस लड़की के विवाह का वचन दे चुका हूं। यदि विष्णु भगवान ब्याहने आ गये, तो मैं क्या जवाब दूंगा। इसी चिन्ता और दुःख से व्याकुल होकर वह मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़े। अपने राजा की यह दशा देखकर सब पर्वतों ने कारण पूछा। तब हिमालय राजा ने कहा कि मेरी कन्या को न जाने कौन चुरा ले गया है । यह सुनते ही समस्त पर्वतगण जहां-तहां जंगलों में तुम्हारी खोज करने लगे ।
इधर तुम सखी-समेत नदी किनारे एक गुफा मे प्रवेश करके मेरा भजन-पूजन करने लगी । भादों सुदी तीज को हस्त नक्षत्र में तुमने बालू (रेत) का शिवलिंग स्थापित करके, निराहार व्रत करते हुए पूजन आरम्भकिया था और रात्रि को गीतवाद्य सहित जागरण किया था। हे प्रिये ! तुम्हारे व्रत के प्रभाव से मेरा आसन डिग उठा। जिस जगह तुम व्रत पूजन कर रही थीं, उसी जगह मैं गया और मैंने तुमसे कहा कि मैं प्रसन्न हूं, वरदान मांगो ।
तब तुमने कहा कि यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे अपनी अर्धाङ्गिनी बनाना स्वीकार करें।
इस पर मैं तुम्हें वरदान देकर कैलाश चला गया ।
सवेरा होते ही तुमने पूजन की सामग्री नदी में विसर्जन की, स्नान किया और सखी-समेत पारण किया । हिमालय स्वयं तुमको खोजते हुए उस जगह आ पहुंचे । उन्होंने नदी के किनारे दो सुन्दर बालिकाओं को देखा और तुम्हारे पास जाकर रुदन करते हुए पूछा कि तुम इस घोर वन में कैसे आ पहुंची ? तब तुमने उत्तर दिया कि आपने मुझको विष्णु के साथ विवाहने की वात कही थी, इसी कारण मैं घर से भागकर यहां चली आई। यदि आप शिवजी के साथ मेरा विवाह करने का वचन दें तो मैं घर को चलूं, अन्यथा मैं इसी जगह रहूंगी । इस पर हिमालय तुमको सब प्रकार से सन्तुष्ट करके घर लिवा लाये और फिर कालान्तर में उन्होंने विधिपूर्वक तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर दिया। जिस व्रत के करने से तुमको यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उसकी यही कथा है। अब यह भी जान लो कि इस व्रत को हरतालिका क्यों कहते हैं। तुमको सखी हरण करके वन में लिवा ले गईं, तब तुमने व्रत किया था। इसलिए इसका (हरत-आलिका) हरतालिका नाम पड़ा। सौभाग्य चाहने वाली स्त्री को ही यह व्रत करना चाहिए। इसकी विधि यह है कि प्रथम घर को लीप-पोतकर स्वच्छ कर सुगन्धि छिड़के, केले के वृक्ष पत्रादि के खम्भ आरोपित करके तोरण पताकाओं से मण्डप को सजाये, मण्डप की छत में सुन्दर वस्त्र लगाये। शङ्ख, भेरी, मृदङ्ग आदि वाजे बजाये और सुन्दर मङ्गल गीत गाये । उक्तमण्डप में पार्वती समेत बालुका (रेत) का शिव-लिंग स्थापित करे। उसका पोड़शोपचार से पूजन करे। चंदन, अक्षत, धूप, दीप से पूजन करके ऋतु के अनुकूल फलमूल का नैवेद्य अर्पण करे ।। रात्रि भर जागरण करे। पूजा करके और कथा सुनकर यथा-शक्ति ब्राह्मणों को दक्षिणा दे। वस्त्र, स्वर्ण, गौ, जो कुछ बन पड़े, दान करे। यदि हो सके तो सौभाग्य-सूचक वस्तुएँ भी दान करे। इस विधि से किया हुआ यह व्रत स्त्रियों को सौभाग्य देने और उसकी रक्षा करने वाला है। परन्तु जो स्त्री व्रत रखकर फिर मोह के वश हो भोजन कर लेती है, वह सात जन्म पर्यन्त वाँक रहती है और जन्म-जन्मान्तर विधवा होती रहती है। जो स्त्री उपवास नहीं करती, कुछ दिन व्रत रहकर छोड़ देती है, वह घोर नर्क में पड़ती है। पूजन के बाद सोने, चांदी के बर्तन में उत्तम भोजन पदार्थ रखकर ब्राह्मणों को दान करे, तब आप पारण करे । जो स्त्री इस विधि से तीज का व्रत करती है, वह तुम्हारे समान अचल सौभाग्य और सम्पूर्ण सुखों को प्राप्त कर अंत में मोक्ष पद लाभकरती है। यदि न कर सके तो इस कथा के सुनने से ही अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है ।
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