मुर्दों के शहर में

मुर्दों के शहर में...

मरने के बाद आदमी
कुछ नहीं सोचता
मरने के बाद आदमी
कुछ नहीं बोलता,
कुछ नहीं सोचने से
कुछ नहीं बोलने से
आदमी वाकई मर जाता है
मुर्दों के शहर में।

झूठ, मक्कारी पर
सच आदर्शों का खोल ओढ़े
खड़े है बीच बाजार
देख रहे संवेदना को 
तिल तिल मरते हुए 
कितने हैं खुदगर्ज 
आ रही शर्म बताने में 
मुर्दों के शहर में।

चेहरे पर है चेहरे 
राज बहुत है गहरे 
खेद की बात तो है यही
आँख कान तो है सबके
पर सब अंधे और बहरे है?
यहां आदमी नहीं सुनते
आदमी की बातें
मुर्दे करते आपस में बातें
मुर्दा के शहर में।

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