अंधेरे से परे मन की रिक्तता
(मन के केनवास पर)
जिंदगी सबके लिए बदलती है
अगर मुझसे कहा जाए कि
कुछ रेखाओं में अपनी जिंदगी को
समेटकर दिखाओ,
तो मैं कुछ इस तरह की चीज बनाऊंगा।
अकेलापन कैसा सघन और ठोस है—
बर्फ की तरह जमा हुआ ।
इसने चारों तरफ से मुझे घेर रखा है।
जैसे बर्फ की सिल्लियों के बीच रखी चीज
खराब नहीं होती,
वैसे ही शायद
मेरी यह अनुभूति भी अक्षुण्ण रहेगी ।
यह अहसास कितना मूर्त है !
मैं हाथ बढ़ाकर
इस अकेलेपन की सघनता को छू सकता हूं,
उंगलियों से खरोंच सकता हूं,
चाकू से इसकी परतें काट सकता हूं-
पतली, बारीक
मगर इससे बाहर नहीं आ सकता।
अंतर्मन से आवाज आई
तुम्हारे लिए कुछ
भी बदलने वाला नहीं है।
बस इसी तरह सुबह
से शाम करते जाना ।
घर में ही काट दिया
आज पूरा दिन
-अखवारों,
पत्रिकाओं और किताबों के सहारे ।
'आज तुम्हारी छुट्टी थी ?"
'नहीं ।'
'तुम आज काम पर थे ?'
'नहीं ।'
ये कैसे उत्तर हैं- तर्क से परे !
'खेर दिन भर तुमने क्या किया ?"
'कुछ नहीं ।'
'कल क्या करोगे ?'
'कुछ नहीं ।'
'तुम्हारे जवाबों में 'नहीं' बहुत आता है ?'
'मैं कम से कम अपनी
नकारात्मक भावनाओं के बारे में आश्वस्त हुँ
सुबह से दोपहर हुई
दोपहर से शाम
शाम से रात मेरे लिए कोई अंतर नहीं पड़ा ।
किस सन् का कौन-सा महीना है,
क्या दिन है,
कौन-सी तारीख है—
इन सबकी मेरे निकट कोई प्रासंगिकता नहीं।
घड़ी और कैलेंडर,
दोनों मेरे लिए अर्थहीन हैं
जैसे भीड़ में प्राणी अकेला
मैं समय के अनंत विस्तार में जीवित हूं
मैं अकेलेपन के तीव्र,
स्वच्छंद प्रवाह में बहा जा रहा हूं
अंधेरे से परे मन की रिक्तता।
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