मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ। 


जीवन!
जीवन क्या है?
धीरे-धीरे मरने का नाम ही तो जीवन है। 
मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ। 
सभी धीरे-धीर मरते हैं। 
पर धीरे-धीरे मरना आसान थौड़े ही है। 
लेकिन मरना तो है, 
आसानी से चाहे कठिनता से, 
मरना निश्चित है। 
कुछ ही होशियार लोग होते हैं
जो अचानक मर जाते हैं 
या मरने का फैसला करते हैं 
और मर जाते हैं।
इन सब लोगो के पास जीने के कारण होते हैं। 
मेरे पास जीने का कोई कारण नहीं है। 
यानी में जिन्दगी भर जीने का कारण
ढूंढता रहा हूँ 
और इसीलिए शायद धीरे धीरे मर रहा हूँ। 
धीरे धीरे मरने का कारण कोई न कोई तलाश होती है। 
यह पता हो कि तलाश तो जिंदा रहेगी, 
पर मिलेगा कुछ नहीं तो मरने की गति और धीमी हो जाती है। 
धीमी चाल से मौत की तरफ रेंगना बहुत त्रासदायक है। 
पर यह भी सच है कि इस रेंगते हुए आदमी को हर त्रास कहीं न कहीं सुख का आभास भी कराती है।
तुम्हें एक बात बताऊ- 
तुम नहीं मरोगी 
कहीं किसी कोने में 
हमेशा जिदा रहोगी। 
रोशनी हमेशा जिंदा रहती है। 
जो रोशनी ढोता है, 
वह घुल घुलकर मर जाता है
धीरे धीरे घुलती मोंमबत्ती देखी है कभी 
रोशनी को कांधे पर लादे 
कैसे आखिरी सांस तक खडी रहती है।
घुल घुल कर छोटी होती जाती है। 
कन्धे जलते जाते हैं, 
झुकते जाते हैं, 
पर लौ को कंधे पर से गिरने नहीं देती। 
एक का कंधा पूरी तरह टूट जाता है तो 
लौ को दूसरी, 
पूरी मोंमबत्ती के कन्धो पर चढ़ाकर ही दम तोड़ती है। 
तुम कहोगी, 
यह लो की प्रकृति है कि सिर ऊचा करके खडी रहे। 
वह किसी के कंधों की मोहताज नही। 
मैं मानता हूँ 
हर रोशनी की लपटे बहुत स्वाभिमानी 
या शायद दम्भी होती है 
पर किसी भी लौ या लपट को यह नहीं भूलना चाहिए 
कि मोंमबत्ती के शरीर से उग, 
उसमे बिधे धाग की बलि ही उसे लौ बनाती है। 
मोम शरीर बिंधवाता है, 
भरे पूरे शरीर को गलाता है 
और रोशनी को रोशनी कहलाने की सुविधा देता है। 
पर रोशनी
हाँ यह सच है सबका 
अपना अपना स्वधर्म है। 
लोग कहते है-
'मोंमबत्ती जल रही है और कि रोशनी हो रही है। 
यानीकि मोमबत्ती का अस्तित्व मिट रहा है 
और रोशनी का अस्तित्व है। 
सुनो मेरे हमदम, 
मैं जल रहा हूँ और 
मेरा जलना ही इस बात का प्रमाण है 
कि तुम्हारी रोशनी मेरे अन्दर है। 
मैं जानता हूँ, 
तुम्हारा और मेरा संबंध इतना ही है 
कि में अपना अस्तित्व मिटा रहा हूँ 
और तुम्हारे अस्तित्व को सिद्ध कर रहा हूँ। 
मैं अपनी रोशनी के सामने नतमस्तक हूँ। 
उसकी हर शर्त मानने को मजबूर हूँ।
मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ। 
सभी धीरे-धीर मरते हैं। 


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2 टिप्पणियाँ

Sudha Devrani ने कहा…
इन सब लोगो के पास जीने के कारण होते हैं।
मेरे पास जीने का कोई कारण नहीं है।
यानी में जिन्दगी भर जीने का कारण
ढूंढता रहा हूँ
और इसीलिए शायद धीरे धीरे मर रहा हूँ।
वाह!!!
क्या बात...
बहुत ही चिंतनपरक एवं विचाररणीय सृजन
जी सादर धन्यवाद आपने रचना के गूढ़ार्थ को समझके सार्थक टिप्पणी की