पढ़ने की संस्कृति

                 (1) पढ़ने की संस्कृति मतलब किताबों से दोस्ती

                  हमारी फिक्र किताबों से दूर होते बच्चे 

पढ़ने की संस्कृति मतलब किताबों से दोस्ती

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पढ़ना मानवीय क्रियाकलाप का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। पढ़ने से कल्पना को जो खुली आज़ादी मिलती है वह किसी दूसरे जरिए से संभव नहीं है। बच्चे यदि कोर्स से अलग किताबें पढ़ रहे होते हैं तो यह अच्छा ही है। इससे उनका भाषा-ज्ञान विकसित होगा, शब्द-विन्यास सुधरेगा और अभिव्यक्ति पुख्ता होगी। ज्ञान की शक्ति और स्वयं को उम्दा तरीके से अभिव्यक्त कर लेने की क्षमता उनके आत्मविश्वास में वृद्धि करेगी। पढ़ने की आदत से उन्हें मानव व्यवहार को समझने में भी आसानी होगी। सामूहिक और व्यक्तिगत चेतना को गढ़ने में ‘पढ़ने की संस्कृति’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यूरोप से लेकर एशिया तक आधुनिकता के विस्तार में ‘पढ़ने की संस्कृति’ निर्णायक रही है। आधुनिक काल का इतिहास इस बात का गवाह है कि तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों को गढ़ने में ‘पढ़ने की संस्कृति’ प्रमुख कारक रही है। 

 पुरानी पीढ़ियाँ किताबों को अपना दोस्त समझते थे। लेकिन आज की युवा पीढ़ी किताबों से बहुत दूर जा चुकी है। आज पढ़ने की संस्कृति कहीं खत्म सी होती जा रही है। जिन पुस्तकों से चरित्र निर्माण होता था, उन्हें पढ़ने, गुनने की प्रथा का लोप हो रहा है। आज के बच्चे तकनीकों के इर्द गिर्द जी रहे हैं। ऐसे में तकनीकी दुनिया से अलग कागज के पन्नों पर अपना दिमाग लगाना उन्हें बड़ा अजीब लगने लगा है। बच्चों में किताबों के जरिये मनोरंजन की सम्भावना कम होती जा रही है। उन्हें कहानी, कविताएं पढ़ने से बेहतर हाई डेफिनिशन वीडियो गेम्स की दुनिया के सुपरहीरोज के साथ कम्पीटिशन करने में मजा आता है। टीवी और लेपटॉप के साथ खेलते हुए बड़े होने वाले बच्चों का किताबों से कोई जुड़ाव नहीं हो रहा है| इस आदत की वजह से बच्चों में पढ़ने के संस्कार विकसित नहीं हो पाते और वे अपने समाज, संस्कृति और साहित्य से दूर होते जा रहे है। विशेषज्ञों का कहना है कि किताबें न पढ़ने की वजह से बच्चों की रचनात्मकता और कल्पनाशीलता में कमी आ रही है जो उनके भविष्य के लिए ठीक नहीं है, ऐसे में भला क्या आशा की जा सकती है कि बच्चों में पढ़ने की संस्कृति विकसित हो पाएगी| 

हमारे समाज में स्कूली पाठ्यक्रम से बाहर पढ़ने की संस्कृति का लगभग अभाव सा है। अपने आस-पास ऐसे लोगों को अंगुलियों में गिना जा सकता है जिन्हें पढ़ने-लिखने का शौक हो। अन्य को तो छोड़िए अध्यापन से जुड़े लोगों का भी अध्ययन से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं रह गया। आज हमारी शिक्षा प्रणाली में परीक्षा में आने वाले अंक इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि उसके अलावा किसी अन्य चीज पर छात्रों, अध्यापकों और अभिभावकों का ध्यान  ही नहीं रहता है। छात्रों की इस तरह से परीक्षा की तैयारी की जाने लगी है कि उसके लिए पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य किसी पुस्तक का महत्व ही नहीं रह गया है। अन्य देशों में पढ़ने की संस्कृति विकसित करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। परिवार में बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। मगर हमारे यहां रटने वाला तोता बनाने वाली व्यवस्था को पोषित करने का काम हो रहा है। 

   

      अगर हमें अपने देश में  पढ़ने की संस्कृति का विकास करना है तो सर्वप्रथम हमारी शिक्षा प्रणाली की खामियों को दूर करना होगा। पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकों के बारे में एक ऐसी प्रणाली बनानी होगी कि नई पीढ़ी के बच्चे उन्हें भी पढ़ें। स्कूल जाने के लिए केवल साइकिल, स्कूल की ड्रेस और स्कूल की किताबें देना पर्याप्त नहीं है, इन बच्चों को किताबों की दुनिया से भी रूबरू कराना जरूरी है ताकि वे खुले मन से दुनिया को जानने-समझने का प्रयास कर सके। आज जिस तरह से हमारे बच्चों का जीवन इंटरनेट, मोबाइल, टीवी सिरीयल, वीडीयो गेम व कार्टून फिल्मों ने छीन लिया है। उन्हें किताबें नहीं भाती हैं। यह हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है और इसके प्रति हमारा चिंतित होना स्वाभाविक है। खास बात यह है कि नई पीड़ी में पढ़ने के संस्कार किस तरह पैदा हो। हमारा मतलब है की साहित्यिक रुचियाँ किस तरह बने। जब युवा पुरी तरह कैरियर में डूबा है और टीवी-चैनल उसके सामने सामानों और बाजार का एक ऐसा चमकीला और स्वप्निल संसार हर क्षण परोस रहे है तो साहित्य की भूमिका और जिम्मेदारी नए सिरे से और अधिक बढ़ जाती है। 

   भारत संस्कारों की भूमि है, आज का बालक कल का नागरिक है, अतः उसमें संस्कार सृजित करना हमारा परम कर्तव्य है। बालक का संसार और संस्कार विकसित करने में प्रथम स्थान परिवार का है इसलिए कहा भी जाता है कि माता प्रथम गुरु है, क्योंकि मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सदाचार और चरित्र की छाप बच्चों को उपदेश देने से नहीं वरन माता-पिता के आचरण व्यवहार और संस्कारों से पड़ती है और द्वितीय स्थान साहित्य का है इसका ज्ञान भी बालकों में परिवार से ही विकसित होता है। भारत वर्ष में स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी आदि प्रखर महापुरुष हुए हैं जिन पर घर के संस्कार और साहित्य का प्रभाव पड़ा है।

 एक अच्छे साहित्य सृजन से ही इस आदत को विकसित किया जा सकता है। ऐसे में बाल साहित्यकारों का दायित्व बन जाता है कि बच्चों के लिए कुछ हटकर सोचे, ऐसी रचना करें जिससे बच्चे पत्र-पत्रिकाओं की ओर आकर्षित हों। आज जीवन को जोड़ने वाले बाल साहित्य की अत्यधिक आवश्यकता है जो सामयिकता और स्थितियों के परिपेक्ष्य में लिखा गया हो। अच्छा लिखने व छपने के साथ ही उसका अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचना भी बेहद जरूरी है। बाल साहित्य का क्षेत्र व्यापक हो इसके लिए ज़रूरी है समय-समय पर परिचर्चा, पुस्तक मेला या प्रदर्शनी, संगोष्ठी और सेमिनार का भी आयोजन हों। बाल-साहित्य के श्रेष्ठ रचनाकारों की रचनाओं का कलेक्शन होना चाहिए| साथ ही बाल- पत्रिकाओं जैसे 1-चकमक 2-अनुराग 3-बच्चों का इंद्रधनुष 4-बाल प्रहरी 5-बाल भारती 6-नंदन 7-बाल हंस 8-नन्हे सम्राट 9-बाल भास्कर 10-चंपक11-चंदा मामा 12- किशोर-प्रभात में अब तक जो बाल साहित्य पर काम हुए उनको संग्रहीत कर गाँव-शहर, स्कूल-स्कूल तक सस्ते दामों में उपलब्ध कराना चाहिए। तभी जाकर बालक और बाल-साहित्य समृद्ध होगा। लोगों के बीच पुस्तक पढ़ने की रुचि को बढ़ाने के लिए सरकार को प्रत्येक पंचायत स्तर पर एक समृद्ध पुस्तकालय खुलवाना होगा। उसमें बच्चे से लेकर उच्च स्तर तक की किताब होनी चाहिये। साथ ही उस पर निरंतर ध्यान रखना होगा। महंगी पुस्तकें भी इस रास्ते में रुकावट है इस लिए सरकार को खुद के प्रकाशन द्वारा अच्छी पुस्तकों को सस्ते दाम में उपलब्ध करवाना होगा। 

   इसके अलावा समाज में जागृति पैदा करने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को काम करना होगा ताकि मां-बाप अपने बच्चों को किताबों के करीब ले जाएं। साथ ही माता-पिता को भी अपनी प्राथमिकता खुद तय करनी होगी। अतः माता-पिता भी पढ़ने की आदत को परिवार की आदत बनाएं। अगर घर पर बच्चा अपने माता-पिता को पढ़ते हुए देखेगा तो उसमें भी स्वाभाविक रूप से किताबों के प्रति आकर्षण पैदा होगा। पालक इंटरनेट या दूरदर्शन से ज्यादा प्राथमिकता किताबों के दे। अच्छी और नई-नई किताबों से रूबरू करवाएं। आप चाहे अखबार पढ़ें या कोई काल्पनिक किताब लेकिन किताबों को अपने घर का एक अहम हिस्सा बनाएं। किताब को आपके बच्चे के जीवन का हिस्सा बनाएं। उनके परीक्षा परिणाम आने पर या जन्मदिन पर उपहार में किताबें दें जिससे बच्चे को पढ़ना एक जरूरी काम लगेगा। आजकल प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों के विकास के लिये चिंतित रहते है। वे इच्छा रखते है कि उनके बच्चे दुनिया में नाम कमाये और उनका नाम भी रोशन करें तो वे अपने बच्चे को पुस्तकों से दोस्ती करवाए। वे पुस्तकों के मध्यम से  विश्व को जान पायेंगे। पुस्तकें जो सिखाती हैं वह दुनिया का कोई और माध्यम नहीं सीखा सकता। यदि वास्तव में भारत को आगे बढ़ाना है तो हम पुस्तकों से परिचित करवा कर एक माहौल देकर ही अपनी पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी को सही दिशा दे सकते है।  

अच्छे समाज व राष्ट्र के निर्माण के लिए अच्छे संस्कार और शिक्षा की आवश्यकता होती है। जो अच्छे साहित्य और पुस्तकों के बिना संभव नहीं है। किसी भी युग मे पुस्तकों का महत्व कम नहीं हुआ विकास के बढ़ते आयामों ने पुस्तक संस्कृति का विस्तार ही किया है। पुस्तकों में ज्ञान का अनमोल खजाना छिपा है, आवश्यकता है हमें उस खजाने को खोजने की। वे हमारे व्यक्तित्व, समाज, देश, प्रदेश को सजाती है, सँवारती है, हमें संस्कार देती है। वे जीने का सलीका सिखाने का प्रयास करती है। सूचना, विचार दृष्टिकोण, दस्तावेज़, प्यार, यथार्थ, रोमांच, स्मृतियाँ, कल्पना,सब कुछ तो देती है किताबें| कहते हैं कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं और दोस्तों से ही आदमी की पहचान। अतः किताबों के भविष्य पर शंका करने से बेहतर है कि हम उनसे दोस्ती बढ़ायें उन्हें अपना हमराही बनाए।

         कैलाश मंडलोई ‘कदंब’    

                    कैलाश मंडलोंई सहायक शिक्षक

                    मु. पो. रायबिड़पुरा जिला-तहसील-खरगोन (म.प्र.)

।                   पिन कोड-451439

                    मो.-9575419049 


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