साधना से जीवन को साधने का पर्व नवरात्र

साधना से जीवन को साधने का पर्व नवरात्र


नवरात्र यह परिवर्तन का ऐसा समय होता है जिसमें शरीर-मन की बढ़ी संवेदनशीलता को मर्यादित जीवन और साधना द्वारा हम आत्म-विकास में नियोजित कर सकते हैं।

नवरात्र का अर्थ है नौ रान में মার मुगु और दो कटरा कर उख है। प्रकर चैत्र शुक्ल पो दिन तक और विक अर्थात राक्षयों पर विजय के लिए देवताओं ने दी कि को आराध की थी और विलय भी पाई थी। इस अर्थ में नवरात्र मुराई पर अचाई को जोत का पर्व है के में देवो है शकाओं के रूप में ममता के रूप में।


इस अर्थ में नवरात्र के नौ रातें या  नई रातें। शास्त्रों में देवी की आराधना का विधान है। और वर्ष में दो गुप्त ओर दो प्रकट नवरात्र का उल्लेख है। प्रकट नवरात्र चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिन तक और अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिन तक का होता है। कारण इन्हीं दिनों में असुरों अर्थात राक्षसों पर विजय के लिए देवताओं ने देवी शक्ति की आराधना की थी और विजय भी पाई थी। इस अर्थ में नवरात्र बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है, जिसके केंद्र में देवी है, शक्तिदात्री के रूप में, ममतामयी माँ के रूप में। इस अर्थ में नवरात्र के नौ दिन जीवन साधने की कला के दिन है। साधन से स्वयं को साधने के ताकि जीवन सार्थक हो सके। शास्त्रों में जिन दो प्रकट नौरात्रों की चर्चा है वे दोनों संक्रांति काल में आते हैं। चैत्र नवरात्र वासंतिक है तो अश्विन नवरात्र शारदीय। वासंतिक नवरात्र जहां हेमंत और ग्रीष्म ऋतु के बीच आता है, वही शारदीय नवरात्र वर्षा की समाप्ति और शरद के आगमन का सूचक है। यह संधिकाल मानव जीवन की दृष्टि से नाजुक और महत्वपूर्ण है। यह परिवर्तन का ऐसा समय होता है जिसमें शरीर-मन को बड़ी संवेदनशीलता को मर्यादित जीवन और साधना द्वारा हम आत्म-विकास में नियोजित कर सकते हैं। ऋतु  परिवर्तन के दोनों दौर में शरीर को साधने की आवश्यकता होती है, इसीलिए उपवास का विधान है। इस भाव के साथ कि कम खाएं और सकारात्मक सोचे ताकि शरीर संचालन के लिए शक्ति का संचय संभव हो सके। कदाचित इसी भाव से नवरात्र साधना में मौन व्रत की भी परंपरा है क्योंकि वाणी के अनावश्यक अपव्यय से ही हमारी बहुत सी संचित शक्ति खर्च होती है।

कहते हैं कभी सिर्फ चैत्र नवरात्र की ही परंपरा थी, कालांतर में शारदीय नवरात्र भी जुड़ा। राजा एवं सैनिक वर्षाकाल में विश्राम कर आश्विन प्रारंभ होते ही नौ दिन शक्ति की आराधना करने लगे और विजयादशमी को युद्ध के लिए प्रयाण। कदाचित इस भाव से कि रावण से युद्ध के लिए श्रीराम ने इसी काल में अकालबोधन किया था अर्थात असमय देवी को बोधन अर्थात जाग्रत किया था। इसीलिए सैनिक भी देवी की आराधना कर विजयादशमी को प्रयाण करने लगे, ताकि विजयी हो सकें। यह क्षत्रियों का प्रमुख पर्व है। विजयादशमी को शस्त्र-पूजा की जाती है और शाम को गांव-नगर की सीमा के बाहर जाकर धन-संपत्ति के प्रतीक शमीपत्र तोड़कर लाए जाते हैं। इसे सीमोल्लंघन कहते हैं। यह अपनी सीमित क्षमताओं के परे जाकर विजय को अंगीकार करने का पर्व है। इस विजययात्रा का मर्म छिपा है शक्ति में, जो बल के साथ प्रज्ञा यानी श्रेष्ठ बुद्धि की भी अधिष्ठात्री है। लोकजीवन की यह परिपाटी सत्य और श्रेयस्कर लक्ष्य के लिए शक्ति नियोजन के संकल्प को दर्शाती है। आध्यात्मिक स्तर पर यही संकल्प शक्ति जागरण द्वारा काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्य इन छह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का आह्वान होता है।


जीवन के संदर्भ में हमें शक्ति के लिए देवी के हर समय-बोध को अलग दृष्टि से समझना होगा। वह यह कि देवी को हर समय जाग्रत किया जा सकता है, हम सच्चे हैं तो वह हर समय जाग्रत है ही। प्रश्न है हमारी भावना का। यदि शक्ति श्रीराम की तरह सर्वहित में रावणवध के लिए जाग्रत की गई है तो अकाल बोधन भी संभव है। यदि सही समय में भी गलत उद्देश्य से जाग्रत करने का प्रयास है तो शक्ति जागरण असंभव है। यदि भाव सकारात्मक हैं तो चैत्र नवरात्र का समापन परिणति में श्रीराम नवमी के रूप में प्रकाश की ओर जाता है, वहीं आश्विन नवरात्र का समापन विजयादशमी के रूप में बुराई पर अच्छाई की जीत कराता है। दोनों नवरात्र समापन पर श्रीराम से जुड़ते हैं और जीवन में श्रीराम-सी वैष्णवता का आह्वान करते हैं। सिखाते हैं साधना से स्वयं को साधने की कला, अंधकार से प्रकाश का मार्ग और जीवन को श्रीराममय बनाने का पाठ। इस संदेश के साथ कि सिर्फ शरीर ही नहीं, मन भी साधें। मन का रावण मरने पर ही नवरात्र भी सार्थक होता है और विजय भी मिलती है।

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