श्रद्धा- कर्म प्रेरणा का आदिस्रोत

श्रद्धा- कर्मप्रेरणा का आदिस्रोत

आ'श्विन मास का कृष्ण पक्ष पितृपक्ष कहलाता है और उसमें पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है, श्रद्धांजलि दी जाती है इस बात को सभी देशवासी जानते हैं। इसलिए वे इस कालावधि को श्राद्ध पक्ष भी कहते हैं। भारतीय परंपरा जीवन जीने की दो शैलिया मानती है एक देवयान और दूसरी पितृयाण। देश में दोनो ही शैलियों का समादर रहा है। देवयान उदात्त चिन्तन के आधार पर जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त कराने वाला मार्ग है। पितृयाण को दक्षिण यान भी कहा जाता है। दक्षिण पितरों की दिशा है। इसका संबंध दीक्षा से है, दक्षता से है, दक्षिणता दाक्षिण्य से है। वासुदेव कृष्ण ने 'योगः कर्मसु कौशलम्' कहकर इसी मार्ग की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। यों कहें कि पितृयाण कर्म का मार्ग है और श्रेष्टकर्म यज्ञ होता है 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म! इसलिए इसे यज्ञ योग मार्ग कहा जा सकता है। श्राद्धपक्ष वस्तुतः यज्ञ और योग की प्रायोजना तैयार करने का अवसर होता है। वर्षाकाल में देवशयनी में देव सो जाते हैं। देवोत्थानी को देव उठेंगे तब किन-किन श्रेष्ठ कर्मों को करने की तत्परता दिखानी होगी इसकी रूपरेखा इस काल में निर्धारित की जाती है।

देवशयन काल में आदमी तो सक्रिय था। श्रीमद्भागवत पुराण, रामायण या महाभारत की कथा सुनकर श्रावणमास मना रहा था। भाद्रपद मास में भद्रपुरुषों को पद-निक्षेप कैसे करना चाहिए- इसका प्रशिक्षण ले रहा था। तब आया आश्विन मास । यह अश्वचर्या अपनाने के लिए नियत मास है। इसमें श्राद्धपक्ष में आत्मावलोकन करने का नियत समय होता है। शुक्लपक्ष में शक्ति साधना की नवरात्रि पद्धति का विधान है। श्राद्ध पक्ष में अपने पूर्व-पुरुषों पुरखों का उनके सत्कृत्यों का, पराक्रम का स्मरण किया जाता है। पितरों का आह्वान करके उनको जलांजलि दी जाती है, श्रद्धांजलि दी जाती है। पुरखों के प्रिय भोज्यपदार्थ बनाकर जीवित श्रेष्ठ पुरुषों को समर्पित किए जाते हैं। बलि-वैश्वदेव

का विधान है। सब भूतों को बलि दी जाती है। प्राणियों के प्रतिनिधियों के रूप में विप्रों को भोजन, गाय को गोग्रास, कुत्ते को और कौए को खाद्य व्यंजन समर्पित करके सम्मान दिया जाता है। यों श्रद्धा दो प्रकार से व्यक्त होती है- प्रथमतः प्राणिमात्र के साथ सम्मान प्रकट करके आत्मीयता का अनुभव करने के रूप में और द्वितीयतः अपने पूर्व पुरुषों की प्रेरक गाथाओं को याद करके। उनकी पुण्यतिथि को इस पक्ष में समाहित माना जाता है। याज्ञवल्क्य की धर्म की परिभाषा है-अयं तु परमो धर्मः यद् योगेनात्मदर्शनम् ॥ योगपूर्वक आत्मदर्शन का सरल रूप श्राद्ध पक्ष में प्रत्यक्षीकृत किया जा सकता है। सब प्राणियों का सम्मान करके सर्वश्रेष्ठ धर्म का पालन किया जाता है-यज्ञ का अभ्यास किया जाता है। श्रीमद्भागवत में कथा आती है यज्ञकर्ता ऋषि की पत्नी यज्ञ का प्रसाद श्रीकृष्ण और उनके साथी गोपबालकों को देकर अपना सहचरी धर्म निभाना चाहती थी। ऋषि ने उसे रोका टोका तो उसने अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर ली-धर्म के लिए जीना और धर्म के लिए मरना श्रेष्ठ पुरुषों का मार्ग है। सब प्राणियों का सम्मान करके धर्माचरण का उदाहरण प्रत्येक भारतवासी प्रस्तुत करना चाहता है। पितृपक्ष को पंचांग में 'महालयारम्भ' के रूप में स्मरण किया जाता है। प्रलयकाल की स्थिति को स्मरण करके जयशंकर प्रसाद ने लिखा था- प्रलय-पथ पर हम बढ़ें अभीत। प्रलय का स्मरण करते समय हम भारतवासी नए जीवन और नए युग की कल्पना और कामना करते हैं। प्रलय का स्मरण करते हुए गांवों में बालिकाएं दीवारों पर संझा (संध्या-युग संध्या) का चित्र बनाती हैं जिसकी पूरी सुनिश्चित धारणा लोकमानस में पैठी हुई होती है। संझा का आरंभ जनेऊ (यज्ञोपवीत) की तीन पंक्तियों के उभार से होता है। प्रलय में तीन तत्त्व-सत्व, रज, तम शेष रह गए । अगले दिन पंचभूतों की पांच टपकियां लगाई गई।

उनमें अग्नि का प्रादुर्भाव या विस्तार दिखाकर रूपों का विस्तार दिखाया जाता है। श्राद्धपक्ष के पंद्रह दिनों में लोक स्वीकृत सृष्टिक्रम को विस्तार देते हुए अंत में मंझा का पूर्ण विकसित शरीर सामने आ जाता है। 'लोके वेदे च' कहकर सिद्धांत और व्यवहार में जिस एकात्म्य की कामना की जाती है, उसे श्राद्धपक्ष में प्रत्यक्षीकृत किया जा सकता है। पितरों का अन्न स्वधा' है। 'स्व-धा' का अर्थ है स्व या आत्मतत्त्व को धारण करना। स्वाहा' में स्व का कथन या आत्माभिव्यक्ति होती है जबकि स्वधा में आत्मतत्व को धारण किया जाता है। श्रद्धा का संबंध भी धारण करने से होता है व्रत को धारण करना। ये शब्द कर्ममार्ग से सम्बद्ध हैं-यज्ञयोगमयो जीवनशैली की शब्दावली है। श्र का अर्थ है- आस्था, निा, परिपक्व इच्छा, उत्कटता, ऐसी इच्छा कर्म संपन्न करने से सम्बद्ध ही हो सकती है। इसलिए श्राद्ध पक्ष को कर्मयोजना को तैयार करने का काल कहा जाना सर्वथा उचित है। ' मेरे पिता, दादा, परदादा ने अथवा मेरी माता, दादी या परदादी ने पराक्रम के इस तरह के मानदंड स्थापित किए थे। इसलिए मुझे भी वैसे मानदंड स्थापित करने हैं।' इस तरह का संकल्प जागता है, श्राद्ध पक्ष में श्रद्धालु जनों में पितरों को इसलिए स्मरण किया जाता है। महाभारत में क्षत्रियाओं के लिए प्रेरणादात्री वीर माता विदुला का चरित-गान किया गया है- प्रेरणा लेने के लिए। कुन्ती ने अपने पुत्रों को संदेश दिया था'क्षत्रिया जिस क्षण (युद्ध में विजय पाने का क्षण) के लिए पुत्र को जन्म देती है वह क्षण आ गया है।' स्पष्ट है कि श्राद्ध पक्ष में बुजुर्गमृतकों का स्मरण उनके उदात्त कर्मों से प्रेरणा लेने के लिए किया जाता है और जीवित चिन्तकों, सदाचारियों को भोजनादि से सम्मानित किया जाता है उनकी साक्षी में पुरखों को कोर्तिकथा दुहराने का संकल्प लेने के लिए। नवरात्रों में शक्ति साधना उन श्रेष्ठ कर्मों को संपन्न करने के लिए ही की जाती है। श्राद्धपक्ष में सन्तान श्रद्धापूर्वक याद करती है अपने पूर्व पुरुषों- पितरों को।

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