भाग्य रेखाएं जो मिट न सकी...
दिसंबर की वो मनहूस संध्या...
नाम सलौनी सच में
तन से भी मन से भी
पर जीवन सलौना कहाँ था?
कुछ शरारत तो की गई है,
भाग्य में उसके साथ
लेकिन उनको बिल्कुल स्याह
या बिल्कुल सफेद नही रंगा गया ।
पेन्सिल कागज़ पर
धीरे-धीरे चल रही थी।
खाका बन रहा था।
आकाश में उमड़ते हुए बादल
और बादलों के बीच एक सिंहासन ।
स्मृतियों का एक झोंका,
भावों की आँधी,
विचारों का तूफान !
"ओह! बन्द दरवाजे को
इस तरह धक्का देकर खोलकर
अच्छा नहीं किया।
कहते हैं कि विधाता महोदय
मनुष्य की रचना करते समय
मस्तक पर उसके
अंकित कर देते हैं,
जो भाग्य की रेखाएँ ,
उन्हें बाद मैं वह भी मिटा नहीं सकते।
चलता जाता है
मनुष्य का जीवन-क्रम
उन्हीं रेखाओं के अनुसार।
रेखाएँ आत्म समर्पण चाहती हैं,
मनुष्य उन्हें मिटा देना चाहता है।
शायद मानव जीवन की सार्थकता
इसी में है कि विद्रोह जारी ही रहे।
वह हैरान है
वह विद्रोह से बचना चाहती है,
लेकिन बच नहीं पाती
दूर तक फैली हुई हैं
विद्रोह की जड़ें
मन की गहराइयों में
उन्हें उखाड़ फेंफना
संभव नहीं
हैरान है वह, हैरान है।
जिनके जीवन में
आरम्भ काल ही से
दुर्भाग्य की काली घटाएँ घिर आई हों
और बराबर बढ़ती ही जा रही हो,
वह क्यों देखे
सुख के स्वप्न ?
वह नहीं देखना चाहती
सुख के सपने।
लेकिन सपने हैं कि
उठे बिना नहीं रहते,
और जब उठते हैं तो
सब कुछ भूल कर
वह खो जाती है
उन्हीं में सुख के सपने,
मिथ्या, निरर्थक सपने !
भाग्य का परिहास,
मन का विकार ।
एकान्त में मनोभावों पर
नियन्त्रण रखने की जरूरत नहीं होती।
हथेली पर ढूड्डी धरे,
पेट के बल बेड पर
पड़ी हुई है वह
आँखें देख रही हैं
खिड़की के उस पार
एक बड़ा- सा टुकड़ा
सफ़ेद बादल का
तैरता चला जा रहा है
आकाश में
कभी वह हाथी बन जाता है,
कभी पड़ियाल,
कभी जाने क्या
उधर बगुलों की एक पंक्ति
टेढ़ी होती,
सीधी होती चली जा रही है
और वह एक पतंग है,
आकाश में उतने ऊपर पहुँच कर
बिलकुल नन्हीं सी लग रही है वह
और उसकी आँखें लगी हुई हैं
इन चीजों की ओर,
लेकिन वे देख रही हैं और ही कुछ ।
आतिशबाजी,
फुलवारी,
तरह-तरह के बाजे,
सैकड़ों बाराती,
सजी सजाई पालकी में
सुन्दर, सजीला दूल्हा
और यह रंगीली रात
सुसज्जित कमरा
रङ्गीन प्रकाश,
फूलों से सजी हुई सुन्दर सेज,
सेज के समीप फर्श पर
सिकुड़ी सिकुड़ाई बैठी हुई
सुन्दर, सजीली दुल्हिन
बन्द दरवाजे का धीरे से खुलना,
किसी का अन्दर आना,
दरवाजे का फिर से बन्द होना,
स्त्रियों की सुरीली हंसी,
और फिर किसी का समीप आना
और जबरदस्ती घूँघट खोलना,
और फिर और फिर
रोमांच उत्पन्न कर देने वाली
रंग-रंग की ये बातें !
सिहर उठी, रोमांचित हो उठी वह
वह हर्ष,
असीम सुख,
अपरिमित आनन्द,
अतुलनीय आह्लाद से भरा हुआ वर्ष
नवीन जीवन-क्रम
नवीन भावनाएँ,
नवीन अनुभूतियाँ
पति का अद्भुत प्यार,
सास-ससुर का पावन स्नेह,
नातेदारों का सराहनीय मान
आदर कोई अभाव नहीं,
कोई खटक नहीं।
सहसा दीर्घ निःश्वास निकल गया
उसके होठों से
और हो गया वज्रपात ।
कोई रोक सका समय को?
टिक-टिक करती घड़ी
खिसकते पल
गम के, खुशी के
रोके नहीं रुकते
सरकता ही सही समय बीतता है।
दिन बीते
हफ्ता बीता
महीनें बीते
देखते ही देखते
दो साल बीत गए।
दिसंबर की वह मनहूस सन्ध्या
वज्रपात
कोरोना का आक्रमण ।
वह जो उसके शरीर का स्वामी था,
उसका वह सुन्दर,
सजीला दूल्हा
तीन घंटे तक अगाध यन्त्रणा भोगने के बाद,
रोग- शय्या पर
बेसुध पड़ा था।
जीवन दीपक अति मन्द हो गया था।
एकाएक लौ भड़की
और बुझ गई। छा गया
चारों ओर गहन अंधकार छा गया
उसके के जीवन में
निविड़ अंधकार
सगे-सम्बन्धियों का वह हाहाकार !
दुर्भाग्य का वह अट्टहास !
झर-झर गिरने लगे आँसू
उसकी आँखों से।
और वैधव्य के ये दो वर्ष
नवीन भावनाएँ,
नवीन अनुभूतियाँ
नवीन प्रवृत्तियाँ उमंगें उठती,
आशाएँ पर निकालती,
मन सुन्दर सपने देखता,
लेकिन उसे आत्म नियन्त्रया का
जो अस्त्र मिल गया था
उससे काम लेने से वह
बाज न आती ।
मन के विद्रोह में
यह योग नहीं देना चाहती
भाग्य की रेखाएँ
आत्म समर्पण चाहती हैं
स्वीकार है उसे उनकी यह व्यवस्था
और यह सिंहासन ?
खाली है सिंहासन
किसी को बैठाना ही होगा इस पर
कौन बैठेगा इस पर ?
कोई नहीं।
कोई नहीं ?
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