कबीर दास के समय 15 वीं शताब्दी की राजनैतिक परिस्थितियां

आए है सो जाएँगे, राजा रंक फकीर। 

एक सिहासन चढ़ी चले, एक बंधे जंजीर ।।


जाने कबीर दास के जन्म के बहाने कबीर दास के समय 15 वीं सदी की राजनैतिक परिस्थितियां, भाग-1

विजय शंकर दुबे का शोधपत्र


पन्द्रहवीं सदी के जिस राजनीतिक परिवेश में कबीर का जन्म हुआ था। राज सत्ता शासक की व्यक्तिगत शक्ति और योग्यता पर निर्भर थी। नियम और सविधान जैसी कोई चीज नही थी। कोई भी महत्वाकाक्षी सरदार अपनी शक्ति के बल पर राज्य कायम कर सकता था। जैसा कि इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मुसलमानों में सुल्तान होने के लिए अभिजात्य आवश्यक नही था। जबकि इसके विरूद्व हिन्दु राजाओं मे यह भावना प्रवल विद्यमान थी। अर्थात जो जन्म से ही उच्च कुल में उत्पन्न हुआ है वही सर्वोच्च सत्ता पाने का हकदार है। यही भावना आगे चलकर समाज को वर्गो में खण्डित करने में अहम भूमिका निभाई थी।


इतना ही नहीं सामान्य जनता में राजनीतिक चेतना का अभाव सा था। राज सत्ता के परिवर्तन से उसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति में कोई मौलिक परिवर्तन संभव नही था। इसलिए वह प्राय उदासीन रहती थी। प्रजा के आर्थिक उन्नति के लिए शासको की ओर से कोई प्रयत्न नही किया जाता था। जैसा कि ज्ञात हो गया था कि शासन के मुख्यत दो ही कार्य थे। शांति कायम रखना और राजस्व वसूल करना। इसीलिए शासकों को जनता का समर्थन नहीं मिल पाया था। मुस्लमानों को अभी तक विदेशी ही समझा जाता था। राजपूत और हिन्दु सामन्त उन्हें बराबर चुनौती देते रहते थे। निरन्तर जिससे युद्ध का वातावरण बना रहता था।

ऐसे वातावरण में सामान्य जनता जो निरीह एव दीन-हीन अवस्था में थी, आर्थिक समृद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती थी। किन्तु इस अवधि मे भारत में आने वाले सभी विदेशी यात्रियों र्माकों पोलों, इबनबबूता और माहुआ ने इसकी समृद्धि का उल्लेख किया है। ऐसा विदित होता है कि ये यात्री भारतीय समाज और राजनीति की ओर ध्यान न देकर केवल भारत के आर्थिक समृद्धि की ओर विशेष ध्यान दिया है। जो उस समय के समृद्धि का उल्लेख किये है ।

तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में शासक वर्ग का रवैया आतक पूर्ण रहता था। लूटपाट और हत्या मामूली बात थीं। इन राजाओं की गलत और दोषपूर्ण नीति के कारण देश जर्जर हो रहा था और प्रजा असह्य कष्ट उठा रही थी। राज नेता धर्म की आड़ मे अत्याचार करते थे। ऐसे शासक से देश के कल्याण की कोई बात ही नही हो सकती थी।

"धर्मार्थ शासक एव सकीर्ण मनोवृत्ति के धार्मिक नेता की स्वार्थ पूर्ण नीति के कारण निरीह जनता दिशाहीनता की स्थिति में सकट झेलने को विवश थी। मनुष्य-मनुष्य से अलग हटता जा रहा था और परस्पर की भेदक रेखाएँ राजनैतिक स्वार्थो के कारण इतनी लबी होती जा रही थी कि आदमी आदमी का दुश्मन बन गया था।" 'कबीर ने इस विषम परिस्थिति से जनता को उबारने के हेतु जेहाद छेड़ दिया था। एक क्रान्तिकारी नेता के रूप में कबीर उभर कर समाज स्तर पर अपनी आवाज बुलन्द करने लगे। काजी, मुल्ला को धिक्कारते हुए शासकों पर भी उन्होंने अपना विरोध प्रकट किया जिसके फलस्वरूप कबीर को राजद्रोह करने का आरोप लगाकर तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया।

तत्कालीन राजनीति को बहुत अंश तक मुल्ला और पुजारी प्रेरित करते थे। हिन्दु और मुसलमानों के भीतर भी निरन्तर ईर्ष्या और द्वेष का बोलबाला था। "उस समय बौद्ध धर्म का ह्रास शुरू हो गया था और जैन, शैव एव वैष्णव धर्मों के भीतर कई शाखाएँ प्रस्फुटित हो रही थी। नाथपथी सम्प्रदाय भी उस समय अपनी आवाज उठा रहा था। और योगी, सन्यासी मुल्ला, शाक्त सब आपसी झगड़े और पारस्परिक सघर्ष में व्यस्त थे।" "उस जमाने की पूरी व्यवस्था एक विशेष तरह के मोर्चे के साथ जन शोषण कर रही थी। जन शोषण के लिए शक्तिशाली लोगों ने कानून से भी बड़ा कानून बना रखा था, जिसे धर्म कहा जाता था। धर्म की आड़ में खड़े हो जाने के कारण शोषक वर्ग अपनी चालाकी को दैवी विधान से जोड़ देता था।

राजनैतिक अराजकता और घोर अन्याय देखकर कबीर का हृदय वेदना से द्रवित हो उठता है। अत्याचार का विरोध करने को वे तत्पर हो जाते है- "बादशाह तुम्हारा वेश क्या है और तुम्हारा मूल्य क्या है ? तुम्हारी गति क्या है? किस सूरत को तुम सलाम करते हो ?" नियमानुसार शासन तत्र के कुछ वैधानिक नियम होते है जिनके अनुसार सरकारी कार्यों का सपादन होता है। लेकिन कबीर के युग में ऐसा कोई नियम नहीं था। धार्मिक कट्टरता के अन्तर्गत मनमाने रूप से शासन तन्त्र चल रहा था जिससे जनता का शोषण बुरी तरह हो रहा था। कबीर के लिए स्थिति असहनीय हो रही थी।

तत्कालीन राजनैतिक उच्छृंखलता देखकर कबीर शासक वर्ग को सावधान करते है। सृष्टि के नियमानुसार आदिकाल से परिवर्तन होता आया है। राजा हमेशा बदलता रहता है। एक की तू ती स्थायी नहीं हो पाती। मरण को स्वीकार करना ही पड़ता है, अत राजभोग प्राप्त कर गर्व नहीं करना चाहिए, अत्याचार नहीं करना चाहिए। यह बात हमेशा याद रखने की है कि एक दिन यह सब राजपाट छोड़कर यहाँ से प्रस्थान करना होगा। कबीर का अनुमान है कि मृत्यु भय से शासक वर्ग के चरित्र में अपेक्षित सुधार होगा और वे अत्याचार त्याग कर मानवता वादी व्यवहार अपनी प्रजा के साथ करेंगे।

आए है सो जाएँगे, राजा रंक फकीर। 

एक सिहासन चढ़ी चले, एक बंधे जंजीर ।।

कबीर शासक वर्ग से अपेक्षित सुधार लाने के इच्छुक हैं ताकि शोषण बद हो। मृत्यु के सम्मुख राजा रंक और फकीर में कुछ भेदभाव नहीं है। सभी को एक दिन मरना पड़ेगा। लेकिन मरने मरने में भी फर्क है। शासक वर्ग राजा अगर कमजोर वर्ग पर अत्याचार करता है, उनका शोषण करता है। तब इस पाप के फलस्वरूप नि सन्देह उसकी गति निम्न कोटि की होगी उसे उनके लिए पुष्प विमान आएगा। "कबीर मूलत अध्यात्मवादी हैं। उनका अस्त्र अध्यात्म है और इसी अस्त्र द्वारा वे अपनी काव्य शैली निर्मित की

जो सबोधनों, सूक्तियों और आत्मसाक्षात्कार से जुड़ी है।""

"आँखें खोलकर चलना कबीर को पसन्द था और वे चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार अपनी आँखों से करे।" तत्कालीन प्रपच साधना से कबीर अनाभिज्ञ नहीं थे। इससे निरीह और अबोध जनता को बराबर धोखा खाने की सभावना बनी रहती थी। अत कबीर ने ऐसे प्रपची लोगों से बचते रहने के लिए सावधान किया है। ऐसे पाखडी लोगो द्वारा ही ससार में अराजकता का वातावरण बनता है। धर्म के नाम पर मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई खोदने वाले से उन्हें सख्त नफरत थी। "उस जमाने में धर्म ही कानून था और धर्म के आधार पर ही सारे स्वत्व प्राप्त किये जाते थे। कबीर ने ऐसे शोषक सगठनों के पक्षधरों को निर्भयता से अस्वीकार कर दिया।""

कबीर जिस युग की उपज थे, वह धर्म प्रधान युग था और उस युग की मानव चेतना धर्म की व्यवस्था में सास ले रही थी। यद्यपि यह धर्म व्यवस्था धर्म की आड़ में अत्याचार कर रही थी। अन्याय और अत्याचार की अधिकता से सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ था। कबीर ऐसी विषम और दोषपूर्ण राजनैतिक वातावरण से जनता को मुक्त कराने के लिए व्यग्र हो उठते हैं। उनका प्रयत्न सरहानीय है।

ऐसे पाखडी लोगों का वे पर्दाफास करते हैं।

परिणाम स्वरूप जब बनारस की महिमा की याद दिलाकर उन्हें छोटा साबित करने का प्रयत्न किया गया तब वृद्धावस्था के बावजूद उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। शायद उन्हें आभास लगा हो कि वे जन शिक्षण का कार्य पूरा कर चुके हैं। इसलिए उन्होंने बड़े स्वाभिमान के साथ "जो कबीरा काशी मरे, रामहि कौन निहोरा" कहते हुए बनारस की सारी तीर्थ गरिमा के समानान्तर उजाड़ वीरान मगहर में एक नया तीर्थ खडा कर दिया।"" इस तरह बिषम परिस्थिति में 'एकै जनी जन ससार' कहकर कबीर ने मानव मात्र में एकता का प्रतिपादन किया तथा एक ऐसी समझदारी पैदा करने की चेष्टा की कि लोग अपने उत्स को पहचान कर वैषम्य की पीड़ा से मुक्त हो सके और मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रेम कर सके।

आधुनिक सदर्भ में राजनैतिक स्थिति में अपेक्षा कृत सुधार लाने हेतु उत्पन्न अस्थिरता को दूर करने निमित्त कबीर साहित्य से बढ़कर और कोई दूसरा साधन आज नहीं है। "कबीर आज होते तो निर्भीक रूप से राजनैतिक दलों एव व्यक्तियों से उनका कड़ा विरोध रहता, क्योंकि आज भी सर्दभ भेद से उन्हें वही दिखाई देता।" "कबीर साहित्य का आधार नीति सत्य है, और इसी आधार पर निर्मित राजसत्ता से राष्ट्र की प्रगति और जनता की खुशहाली संभव है।

शोधकर्ता ने निम्न सन्दर्भ ग्रन्थ पर लिखा है

1 डॉ० त्रिभुवन सिह, कबीर साहित्य की प्रासगिकता, पृ०-136

2 डॉ० सरनाम सिह, कबीर एक विवेचन, पृ०-109

3 डॉ शुकदेव सिह, कबीर साहित्य की प्रासगिकता, पृ०-2

4 डॉ शुकदेव सिह, कबीर साहित्य की प्रासगिकता, पृ०-11

5 डॉ शुकदेव सिंह, कबीर साहित्य की प्रासगिकता, पृ०-३

6 डॉ० हृदय पाल सिह तोमर, कबीर साहित्य की प्रासगिकता, पृ०-126

7 डॉ शुकदेव सिह, कबीर साहित्य की प्रासगिकता, पृ०-14

8 डॉ शुकदेव सिंह, कबीर साहित्य की प्रासंगिकता, पृ०-5

9 डॉ शुकदेव सिह, कबीर साहित्य की प्रासगिकता, पृ०-15

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