सृष्टि- सौन्दर्य

       माटी की धरती पर सहसा सोने के फूल खिल उठे। सभी चौके, सभी को यह विस्मय भा गया। तभी सहयोग की बाहें आगे बढ़ीं और जन-जागरण की जयमालाएँ  सबके गले में डाल दीं । व्यक्ति मुस्करा दिया और उस की मुस्कराहट के साथ ही साथ पृथ्वी पर का घना अंधेरा दूर हो गया। फिर जब सूरज ने आंखें खोली तो धरती हँस रही थी । वह कह रही थी कि देखो मेरी माँग में मोती भरे हैं। मेरी काया कंचन की हो गई है। मेरा विवाह हो गया है। मैं फल रही हूँ, मैं फूल रही हूँ। 

      एक ऐसे स्थल की कल्पना कीजिये, जिसमें प्रकृति-राशि की प्रचुरता विद्यमान हो, जहाँ सरिता हों, सरोवर हों, और कहीं-कहीं पर छोटे-छोटे मनोहर पर्वतों के दृश्यों का भी आनन्द मिल सके। इस स्थल के समीपवर्ती प्रदेश में सघन वनों का समूह हो तो और भी अच्छा है। नैसर्गिक उपवनों में विचरण करने वाले पशु और उपवन के सुगन्धित पराग को गगन-स्थल में विकीर्ण करने वाले विहंग-वृन्द भी जहाँ किलोलें कर रहे हों। यही नहीं, इस स्थल की उस चित्ताकर्षक कान्ति का भी स्मरण कीजिये जब यहाँ की अनिर्वचनीय अतुल सम्पत्ति को देख कर प्रभात-काल में भगवान सूर्यदेव मन्द-मन्द मुसकान से हँस रहे हों और रश्मि-करों द्वारा अपने अतुल वैभव को इस प्रान्त की शोभा पर निछावर कर रहे हों। इस समय सभी आनन्द में हैं, छोटे-छोटे फूल भी हँस रहे हैं, मञ्जुल लताएँ भी नव-जीवन प्राप्त कर रही हैं, मदोन्मत्त नदियाँ भी उमड़ी चली आ रही हैं, पक्षियों के कण्ठ में भी उन्माद राग उत्पन्न हो गया है और वे भी प्रसन्न-चित्त रसीले गान गा रहे हैं। सूर्योदय में बह चमत्कृत शक्ति है, जो जड़ पदार्थ में जीवन और जीवित पदार्थों में उन्माद उत्पन्न कर देती है।

      सूर्योदय के पश्चात् सम्पूर्ण जगत अपने कार्य संचालन में व्यस्त हो जाती है, प्रभात काल का अरुण बाल-सूर्य धीरे-धीरे अपना तेज बढ़ाने लगता है। एक ऐसी अवस्था आती हैं, जब इस धरा के किसी भी प्राणी की इतनी शक्ति नहीं होती कि इस आकाश के अधिपति को ओर खुले नेत्रों से देख भी सके। उसके प्रचण्ड तेज का प्रताप सर्वत्र छा जाता है। प्रातःकाल के विकसित सुमन अब खिन्न हृदय दिखाई पड़ने लगते हैं, लताओं के बदन भी उदासीन हो जाते हैं, बेचारे पशु-पक्षी किसी विशाल वृक्ष की छाया में अथवा शान्तिदायिनी सरिता की गोद में बैठे हुए कुछ निरुत्साहित दिखाई पड़ते हैं। शीतल भूमि भी अब तप्त हो जाती है। सरिता के समीप रहने वाली शीतलता भी अब इतनी गरम हो जाती है कि उस पर नंगे पैर चलना दुष्कर हो जाता है।

      मध्याह काल के उपरान्त फिर परिवर्तन होता है, सूर्य का तेज अब मन्द पड़ता जाता है। सायंकाल तक वह फिर अपनी पूर्वावस्था में आ जाता है। प्रातः के सूर्य में जीवन था, पर इस समय वह व्यथित दिखाई पड़ता है। उसे अब विश्राम लेने की आवश्यकता होती है। इस सृष्टि के चराचर प्राणी, जड़ चेतन सभी अब विश्राम के लिये लालायित दिखाई पड़ते हैं। चिड़ियाँ थकीमाँदी अपने घोंसलों को लौटने लगती हैं, अपने छोटे-छोटे बच्चों को वे सस्नेह चुगाती हैं और तदुपरान्त थपथपियाँ देकर सुलाने का प्रयत्न करती हैं। गायें इस गोधूली वेला में अपने घर को लौट आती हैं, अन्य पशु भी अब व्यथित दिखाई पड़ते हैं और वे भी सुख की नींद सोना चाहते हैं। इस समय आकाश भी तरह-तरह के रंग बदलता है। कहीं लाली छा जाती है तो कहींकहीं हरी, नीली, पीली और नारङ्गी रंग की किनारियों से विभूवित पटल द्वारा आकाश अपने शरीर को सजाता प्रतीत होता है। पर उसके ये रंग बहुत शीघ्र ही परिवर्तित हो जाते हैं। धीरे-धीरे सूर्यास्त के साथ-साथ सम्पूर्ण व्योम-मण्डल में निस्तब्धता छा जाती है। बस दिन की लीला समाप्त होती है।

      चारों ओर अँधेरा छा जाता है। सम्पूर्ण पृथ्वी काले वस्त्र धारण कर लेती है। वृक्ष के पत्ते सो जाते हैं, चिड़ियों का मधुर गान बन्द हो जाता है, पशुओं का बिहार करना भी शिथिल पड़ जाता है। सर्वत्र निद्रा का साम्राज्य छा जाता है। सरिता अब भी पूर्वोन्माद में बहती चली जाती है, पर उसके प्रवाह में प्रेम के स्थान में अब भय की मात्रा अधिक दृष्टिगत होती है। उसके तट पर मेंढकों की टर-टर ध्वनि मन को और भी भयभीत कर देती है। सरिता का प्रत्येक तरङ्गोत्पात हृदय पर वज्र के समान पड़ता प्रतीत होता है। यह तो नदी की अवस्था है। वायु भी मन्द-मन्द मस्त चला जा रहा है। उसका स्पर्श कितना सुखदायी है। मध्याह्न काल के भीषण ताप से तापित प्राणी इस समीर के शान्त प्रवाह द्वारा पुनः आश्वासन प्राप्त करते हैं।

पर रात्रि की रमणीकता पृथ्वी में नहीं है वह तो गगन मण्डल में है। निशा हमारे विश्राम का अवश्य कारण होती है, पर बिस्तर पर लेटे हुए यदि कहीं हमारी आँखें गगन मण्डल की ओर चली जायँ तो फिर क्या कहना है। नीले निस्तब्ध आकाश में दीपावली का दृश्य चित्त को आनन्द की हिलोरों से आल्हादित कर देता है। नक्षत्र गणों की अतुल राशि धरा के वैभव को परास्त कर देती है। जिस प्रकार प्रातःकाल में हमारे उपवन के स्वर्णमय फूल हँसते थे, उसी प्रकार इस गगनोपवन में ये आलोकमय पुष्प मन्द-मन्द मुसका रहे हैं। नीले पटल पर जटित सहस्रों नहीं, ये लाखों रत्न कितने मनोमोहक प्रतीत होते हैं, इसका अनुमान भी लगाना सम्भव नहीं है।

      आकाश के ये तारे भी विचित्र हैं। कुछ तो हमारे बहुत निकट प्रतीत होते हैं और कुछ हमसे बहुत दूर चमचमाते हुए नक्षत्र अपनी विभिन्न ज्योति से धरा की अंधयारी को विच्छिन्न करने का सतत प्रयत्न कर रहे हैं, पर यह प्रयत्न इनकी शक्ति के बाहर है। धीरे-धीरे इन्हीं तारों में होती हुई एक तेजोराशि सम्मुख आती है। इस राशि का नाम ही चन्द्रमा है, इसे ही रजनी पति या राकेश कहते हैं। कल्पना कीजिये कि यह पूर्णिमा की रात्रि है। चन्द्रोदय के साथ ही निशा की सम्पूर्ण कालिमा अकस्मात् विलीन हो जाती है। नभोमण्डल देदीप्यमान हो उठता है, भूमि पर दूध के समान श्वेत ज्योत्स्ना फैल जाती है।

      इस रजतवर्ण चन्द्रिका से जगती सुसज्जित हो जाती है। इसके शीतल आवरण में संसार की समस्त व्यथाएँ लुप्त हो जाती हैं। किसी सरोवर के तट पर खड़े होकर इस चाँदनी के दृश्य का अनुभव कीजिये, निर्मल जल के अन्दर नील आकाश का बिम्ब और उसमें चमकते हुए तारों की असंख्य ज्योतियाँ एवं प्रत्येक तरङ्ग के उत्थान-पतन के साथ जलान्तर्गत अनेक चन्द्रमाओं की झिलमिलाती हुई मनोमोहक कान्ति सृष्टि के प्रासाद में विचित्र कौतूहल उत्पन्न करती है। यह पूर्णिमा की रात्रि व्यथित हृदय में शान्ति, आलोक और क्षमता उत्पन्न करती है। सायंकाल से प्रातःकाल तक भूमि भी इस रात्रि में क्षीरसागर बन जाती है।

       पूर्णिमा के पश्चात् चन्द्रमा की कला प्रतिदिवस क्षीण होती जाती है, धीरे-धीरे चन्द्रोदय में विलम्ब होने लगता है। पूर्णचन्द्र से अर्धचन्द्र रह जाता है और यह अर्धचन्द्र भी केवल नख की वक्र परिधि के समान तीन-चार दिन तक ही रहता है। तत्पश्चात् अमावस्या के दिन भूलोक का अन्धकार चन्द्रराशि पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है। अब बेचारे रजनी पति का कहीं पता भी नहीं चलता है। चारों ओर अँधेरा छा जाता है। गगन के आंगन में चमचमाते हुए तारे इस अमावस्या में पूर्णिमा के दिन से भी अधिक निर्मल, निर्भ्रान्त एवं कान्तिमय प्रतीत होते हैं। अमावस्या की रात्रि में भी अगाध सौन्दर्ग्य है, पर यह पूर्णिमा के सौन्दर्य से भिन्न है। अस्तु, धीरे-धीरे रात्रि के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्ममुहूर्त्त आता है। दिन में सूर्य की प्रखर रश्मियों द्वारा उत्तप्त धरा रात्रि में शीतल पड़ जाती है। प्रातःकाल फिर शीतल मन्द सुगन्ध समीर का प्रवाह आरम्भ हो जाता है। कुछ समय पश्चात् फिर उषाकाल आता है और सम्पूर्ण दिशाओं का फिर विरंजित श्रृंगार आरम्भ होता है। फिर दिन होता है और दिन के बाद रात आती है और रात के बाद फिर दिन आता है। इस प्रकार सृष्टि में दिवस-रात्रि का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।

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