रामचरित मानस का प्रभाव सात समंदर पार


     


          संस्कृति ही समाज की आत्मा होती है। भारतीय संस्कृति सदियों से विश्वव्यापी विशाल क्षेत्र की एक महत्त्वपूर्ण और जीवन्त इकाई रही है। लेखक ने  लिखा की सन् 1984 ई. में जब मैं सूरीनाम (दक्षिणी अमेरिका) की यात्रा पर था तो वहाँ इस गीत ने मेरे भावुक हृदय को झकझोर दिया- 
आओ के गुन जहाँ से आइल महतारी॥
छोड़ अइली हिन्दुस्तानवा बबुआ पेटवा के लिए,
छोड़ली मइया, बप्पा, बन्धु, सारा परिवारवा ।
पड़ली भरम माँ छूटल पटना के शहरवा,
छुट गइले प्यारी गंगा मइया के अंचरवा ।
नाहीं मानली एकौ बाबा भइया के कहनवा,
बबुआ पेटवा के लिए।
छोड़ अइली हिन्दुस्तानवा बबुआ पेटवा के लिए।

         उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में हजारों लोग रातों-रात धनवान बनने के भ्रम में बहला-फुसलाकर मॉरिशस, फीजी, गुयाना, सूरीनाम, ट्रिनीडाड आदि देशों में ले जाये गये। अरकाटी दलालों ने भारत के भोले-भाले श्रमवीरों को इन देशों में ले जाकर फेंक दिया, जहाँ उनसे पशुवत कार्य कराया और गौरांग प्रभुओं ने गन्ने के उत्पादन से 'सफेद सोना' पर्याप्त मात्रा में प्राप्त करते रहे । यद्यपि वे श्रमवीर निरक्षर एवं कुछेक साक्षर थे किन्तु वे सभी धर्मपरायण अधिक थे। इसी से उन्हें सदैव ऊर्जा मिलती रही।
          संस्कृति के सबसे महत्त्वपूर्ण अवयव धर्म, साहित्य और भाषा होती है। धर्म का साम्प्रदायिक रूप भले ही परिवर्तित होता रहे किन्तु उसका शाश्वत तथा सामान्य रूप नित्य एवं अपरिवर्तनीय होता है। मानव-मानव के बीच का सबसे सुदृढ़ सम्पर्क के-सूत्र साहित्य है । साहित्य देश, धर्म और भाषा के भेद को नहीं मानता । वह स्वयं मनुष्य के हृदय की भाषा है। चाहे शिक्षित मनुष्य हो या अनपढ़ गंवार, सबमें साहित्य की एक अनुबूझ प्यास होती है। अनपढ़ ग्रामीण जनता के पास तो साहित्य और आस्था की धरोहर है, उसे लोक साहित्य की संज्ञा दी जाती है जिसमें उसके लोक-जीवन का समग्र रूप प्रतिबिम्बित होता है। 
मॉरिशस का यह लोक-गीत इसी ओर संकेत करता है-
घोखवा मां परिके हम तजि देहलों देसवा,
सहइ   कै।    परतह   हइ  बड़ी    पीर।
सोनवां खातिर अइलों एहि रे मिरिच देस,
गलि    गइल  सोनवा           सरीर।

        मॉरिशस के प्रवासी भारतीयों के बीच एक लोक-विश्वास है कि रावण के मामा मारीच ने मरते समय भगवान श्रीराम से यह वरदान मांगा था कि मैं हमेशा आपका नाम सुनता रहूँ। भगवान ने ज्यों ही मारीच के शव का स्पर्श किया, वह मोती में परिणत हो गया। उस मोती को उठाकर राम ने बड़े जोर से दक्षिण दिशा की ओर फेंक दिया। वहीं मोती 720 वर्ग मील में फैला मॉरिशस द्वीप-'हिन्दी महासागर का मोती' के नाम से प्रसिद्ध है। युगों तक मारीच की आत्मा को भगवान राम का नाम सुनने को नहीं मिला तब कलयुग़ में जब हिन्दुस्तानी खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग 1834 में तुलसी कृत रामचरित मानस लेकर मॉरिशस द्वीप आए तब से मारीच की आत्मा राम का नाम प्रतिदिन सुनती है क्योंकि मॉरिशस में प्रतिदिन कहीं न कहीं रामायण का पाठ होता रहता है और राम-नाम धुन होती है, हरि कीर्तन होता है जिससे मॉरिशस का परिवेश राममय बना रहता है। भगवान राम ने मारीच को परम पद दिया था। मानस में कहा गया है-
                           अन्तर प्रेम तासु पहिचाना।
                    मुनि दुर्लभ गति चीन्हि सुजाना।।
           बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहि प्रभु गुन गाथ ।
            निज पद दीन्हि असुर कहुँ दीनबन्धु रघुनाथ ।।
      मॉरिशस में जब विद्याध्ययन प्रारम्भ किया जाता है, तब ‘रामा गति देंहु सुमति देहुँ' का वाक्य उच्चारित किया जाता है। वहाँ मानस की चौपाइयाँ जीवन का अंग बनचुकी हैं । लेखक स्वयं इस द्वीप का कई बार भ्रमण कर चुका है। प्रशान्त महासागरीय देश फीजी में प्रतिदिन रेडियो के माध्यम से रामायण की चर्चा होती है। वहाँ अनेक रामायण मण्डलियाँ भी हैं। फीजी में नैतिक मूल्यों और जीवनादर्शों का आधार रामचरितमानस ही है। लेखक ने स्वयं अपनी फीजी-यात्रा में इसे देखा और परखा है। वहाँ के प्रवासी भारतीयों को मानस का राम वन गमन प्रसंग अत्यन्त मॉर्मिक एवं हृदयग्राही लगता है। यह उनके लिए मात्र राम का ही वनवास नहीं है वरन् उनका अपना वनवास भी उससे जुड़ जाता है। राम पिता की आज्ञा मान वन गये थे और प्रवासी भारतीय अर्थालाभ की मृगमरीचिका में फँसकर, अपनी मातृभूमि से हजारों मील दूर चले गये। फीजी का यह लोक-गीत यही दर्शाता है-
                 फिरंगिया के राजुवा मा छूटा मोरा देसुवा हो,
                गोरी  सरकार   चली    चाल रे     बिदेसिया।
                भोली    हमें   देख   अरकाटी    भरमाया हो,
                कलकत्ता पार जाओ पाँच साल रे बिदेसिया।
       इस लोकगीत में सम्पूर्ण जीवन की व्यथा-कथा है। मॉरिशस और सूरीनाम में भी ऐसे ही अनेक गीत प्रचलित हैं। सूरीनाम देश तो 'श्रीराम टापू' ही कहा जाता था। वहाँ की पुरानी पीढ़ी के लोगों में विश्वास है कि उन्हें कलकत्ता में जहाज पर बैठते समय यह बताया गया कि वे 'श्रीराम टापू' जा रहे हैं। सभी की समझ में आया कि 'श्रीराम टापू बंगाल की खाड़ी में कहीं होगा, पर जब उनका जहाज महीनों तक समुद्र में चलता रहा तब उन्हें अनुभव हुआ कि उन्हें ठगा गया है और वे अन्यत्र कहीं ले जाये जा रहे हैं।
         सन् 1873 में भारतीय श्रमिकों का प्रथम जत्था 'लालारुख' नामक जहाज से वहाँ पहुँचा था। सन् 1916 तक लगभग 34 हजार भारतीय वहाँ पहुँचे । यही श्रमिक सबसे पहले मानस का मौखिक रूप फिर कालान्तर में मानस की प्रतियाँ लेकर आये। सूरीनाम में प्रतिदिन रेडियो पर रामायण पाठ होता है। रानी रेडियो, निकेरी से प्रातः रामायण का पाठ होता था। इससे सम्पूर्ण रामायण लगभग 12 वर्षों में समाप्त हुई थी। वहाँ की जनता पर मानस का प्रभाव बहुत है। यहाँ रामलीला का मंचन और प्रदर्शन होता है। रामायण की पूजा और पाठ तो उनके दैनिक जीवन का अंग है। मैंने स्वयं सन् 1984 में वहाँ सर्वप्रथम ‘अखण्ड रामायण पाठ' का प्रचलन शुरू किया था। तब से वहाँ आज तक बराबर रामायण के अखण्ड पाठ की परम्परा चल पड़ी है और रामायण का स्थान-स्थान पर जन-कल्याण और शान्ति के लिए पाठ होता आ रहा है।

             फीजी में 'श्री रामायण महारानी' की जयकार से रामायण शुरू किया जाता है और उसे लाल तूल में बाँधकर ऊँची जगह पर रखते हैं। न्यायालय में कोर्ट-क्लर्क श्री रामायण महारानी की ही शपथ दिलाता है। फीजी की कुली-लाइनों में अयोध्यापुरी और लंकापुरी आदि स्थान हैं। जहाँ रामभक्त जनता रामलीला के कतिपय प्रसंगों का मंचन गायन करती है। लेखक कहते हैं कि उन्होंने स्वयं फीजी की अयोध्यापुरी और लंकापुरी की पावन धूलि अपने मस्तक पर लगायी है। मानस चतुश्शती के अवसर पर श्री ब्राह्मण पुरोहित सभा ने 'मानस-पंचांग' बनाया। तब से आज तक हर वर्ष वहाँ यही मानस पंचांग जनता में लोकप्रिय है। फीजी सम्भवतः विश्व का पहला भारतेतर देश है जहाँ 'मानस पंचांग' बनाया गया। श्रीराम वहाँ के भारतवंशियों के इष्ट-देव हैं और शक्ति के देवता हनुमान' हैं। फीजी के 'काईबीती' लोग भी रामायण से प्रभावित हैं। काईबीती वहाँ के ! निवासी माने जाते हैं। तभी तो वहाँ के काईबीती भाषा के विद्वान् श्री सैमुवल । वरविक ने रामायण के कुछ अंशों का अनुवाद काईबीती भाषा में किया है । इससे वहाँ की आदिम जाति भी भारतीय संस्कृति के पावन प्रसंगों को अपनी भाषा के माध्यम से समझने में सफल हुई है। श्री वरविक की रामायण एक ऐसे सांस्कृतिक सेतु का कार्य कर रही है जिस पर दोनों समुदाय एक-दूसरे को निकट से जानने का प्रयास करते हैं। रामत्व की अभिव्यक्ति और माध्यम से व्यक्ति-व्यक्ति को शीलाचार और भक्ति की प्रशिक्षा ही मानस का मूल उद्देश्य है । मानस का राम एक एशियाई शब्द रूप में और श्रेष्ठ के अर्थ में ग्रहण किया जाता है । जापानी भाषा में राम का अर्थ सूर्य होता है।
         वैसे भी राम सूर्यवंशी हैं । सूरीनाम के इण्डोनेशियन लोग रामायण और गीता महाभारत की कथाओं के आधार पर नाटक खेलते हैं जो 'मायोंग' के नाम से प्रसिद्ध है । वैसे धर्म से वे लोग इस्लाम मत के अवलम्बी हैं । 
संकटकाल के समय प्रवासी भारतीयों में मानस ने ही वह प्रेरणा और शक्ति दी जिसके बल पर वे अपनी संस्कृति और सभ्यता को सुरक्षित रखते हुए निरन्तर अपनी मुक्ति हेतु संघर्ष करते रहे और अन्ततः वे सभी सफल भी हुए। तभी तो प्रवासी मॉरिशस, फीजी, गुयाना, सूरीनाम, ट्रिनीडाड आदि आज एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में
जगप्रसिद्ध हैं। मॉरिशस के तो प्रत्येक लोक-गीत में तुलसीदास का नाम होता है जबकि भारतीय लोक-गीतों में रचयिता का नाम सहज रूप में नहीं मिलता। विवाह के समय गाया जाने वाला यह गीत राम-प्रभाव को ध्वनित करता है-
               हरियर बाँस मंगायो जनक राजा, 
               चारों कोना खम्भ गड़ायो जी
               सीता राम वर पायो, 
               राजा जनक जी हो कूस मंगायो
               कूस में माड़ो छवायो जी, सीता राम वर पायो।
               मुनि सब फूल बरसायो जी, सीता राम वर पायो।
               तुलसिदास बलि आस चरन के, 
               हरि के चरन चितलायो सीता राम वर पायो।।
       ट्रिनीडाड में रामनवमी के दिन 'रामायण-यज्ञ' होता है। रेडियो गार्डियन से रामायण पर व्याख्यान भी प्रसारित होते हैं। मन्दिरों में भजन-कीर्तन की धूम रहती है। वेस्टइण्डीज कहा जाने वाला यह छोटा-सा राष्ट्र है। यहाँ सन् 1845 में सर्वप्रथम भारतीय श्रमिकों का जत्था ‘फतलरोजक' नामक जहाज से पहुंचा था। लेखक ने इस देश की यात्रा के समय देखा कि यहाँ के मन्दिरों में रामायण का सस्वर पाठ होता है और उसका भाष्य अंग्रेजी और हिन्दी में किया जाता है। पूरे ट्रिनीडाड में रामायण का प्रभाव धार्मिक आस्था और संस्कृति की रक्षा के लिये होता है। रामलीला के माध्यम से मानस यहाँ प्रवासी भारतीयों में अत्यधिक लोकप्रिय है। 
       सुनी, ट्रिनीडाड, सूरीनाम, गुयाना, जमैका आदि राष्ट्रों में रामचरितमानस का प्रभाव दैनिक जीवन के अतिरिक्त सामाजिक कार्यों, सांस्कृतिक उत्सवों एवं धार्मिक क्रियाओं के अवसर पर खूब देखा जा सकता है। भारतेतर देशों में जहाँ भी प्रवासी भारतीय हैं, उन सबके पूर्वज मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से गये थे। कालान्तर में बहुत से भारतीय तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब से भी थे। इनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है। इनमें से सबसे अधिक हिन्दू, फिर मुसलमान और थोड़े से अन्य धर्मावलम्बी भी गये थे। सबकी 'पितृ-भूमि' भारत है। इसीलिये ये लोग जब भी भारत आते हैं तो अपने 'पितृ-ग्राम' यदि उन्हें मालूम है तो अवश्य जाते हैं। पर कुछ लोग तो 'पितृ-भूमि' की तलाश न कर पाने से निराश ही लौट जाते हैं क्योंकि उन्हें उनका अता-पता नहीं रहता। उनके पूर्वज अनपढ़ होने से और कभी-कभी भय और शंका के कारण अपना पैतृक स्थान नहीं बताते थे। प्रवासी भारतीयों के भारत आगमन में काफी व्यय होता है और वे इससे यहाँ के तीर्थ-स्थानों का भी दर्शन कर लेते हैं।

       विश्व के जिन-जिन राष्ट्रों में प्रवासी भारतीय रह रहे हैं, वहाँ रामायण उनका प्राण स्वरूप पूज्य ग्रन्थ है। जार्ज ग्रिर्यसन ने रामायण को बाइबिल के समान पवित्र ग्रन्थ माना है। थाईलैण्ड, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो में भी रामायण का पर्याप्त प्रभाव है। थाइलैण्ड में 'रामकियेन' तो बहुत ही लोकप्रिय ग्रन्थ है । वीर काव्य के रूप में यहाँ इसकी महत्ता है। जीवन का आदर्श भी कभी-कभी इसमें देखा जाता है। फादर
कामिल बुल्के ने एक बार कहा था कि भारतीय साहित्य में राम-कथा की लोकप्रियता की अपेक्षा विदेश में उसकी व्यापकता और भी आश्चर्यजनक है। डॉ. बुल्के के कथन के प्रमाण में मॉरिशस, फीजी, गुयाना, सूरीनाम, ट्रिनीडाड, हॉलैण्ड, कीनिया, दक्षिणी अफ्रीका, अमेरिका तथा यूरोपीय देशों के नाम सगर्व लिये जा सकते हैं। मानस की सार्वभौमिकता ही आज मानव-जीवन का प्राण है। चाहे वह किसी भी देश का नागरिक है अथवा किसी भी सम्प्रदाय का हो। इससे यह सहज ही प्रमाणित होता है कि मानस हिन्दुओं और भारत का ही पवित्र ग्रन्थ नहीं है अपितु वह सम्पूर्ण मानव-जाति के शील, सौन्दर्य और सत्य के पालन का आधार ग्रन्थ है, जो कि एक कालजयी रचना के रूप में सदैव पथ-प्रदर्शक बना रहेगा।





 

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