आदमी बेचारा


                         आदमी बेचारा


        आदमी बेचारा क्या करें? शादी हुई, बीवी घर आई। बीवी के लिए नया घर, हर चीज नई। हर काम नया। वह बीवी का कहा मानने लगा। माँ बोली जोरु का गुलाम। बीवी की सुनता है। सब बोले जोरु का गुलाम। बीवी की सुनता है।       

        वह माँ की सुनने लगा। माँ की मानने लगा। सब बोले माँ-वलिया हो गया है। माँ की सुनता है। बीवी ने कुछ बोल दिया, उसने बीवी पर हाथ उठाये तो अब सब बोले बेशर्म महिला पर हाथ उठता है।शर्म नहीं आती एक अबला पर हाथ उठाते। उसने बच्चों को डॉटा तो सब उसे जालिम कहने लगे। जालिम कहीं का मासूम बच्चों पर हाथ उठता है। 

     आदमी बेचारा क्या करता? उसने डाँटना, डपटना, मारना, पीटना, सब बंद कर दिया। लड़ने दिया, झगड़ने दिया बच्चों को तो, अब माँ बोली बड़ा लापरवाह हो गया है तू। कुछ नहीं कहता बच्चों को। अब वह चुपचाप रहने लगा। सब बोलने लगे डरपोक कहीं का।

          अब वह अधिकांश समय घर से बाहर रहने लगा। घर से बाहर क्या रहा। सब उसे आवारा कहने लगे।  किसकी सुने किसकी ना सुने। सब की बातें सुन-सुनकर उसके कान पक गये। अब उसने घर बाहर निकलना बंद कर दिया। वह अधिकांश समय घर में ही रहता। घर में रहे तो सब बोले घर कूकड़ा कहीं का घर के घर में ही पड़ा रहता है।
      बीवी बोली तुम घर रहो मैं काम पर जाती हूँ। अब तो मुझे भी नौकरी करना है। आदमी ने बीवी को नौकरी करने से मना किया तो सब बोले शक्की कहीं का। अपनी बीवी पर शक करता है इसलिए उसे नौकरी करने नहीं जाने देता। उसने अपनी बीवी को नौकरी करने भेज दिया। बीवी को नौकरी करने क्या भेजा सब बोलने लगे बीवी की कमाई खाने वाला। अब आदमी बेचारा क्या करें?
       सबकी बातें सुनकर उसने मन ही मन सोचा मैंने अपनी सारी जिंदगी कभी बेटा, कभी भाई, कभी पति, कभी दामाद और कभी पिता बनकर गुजार दी। पूरी ज़िंदगी मैंने समझौता किया। मैंने दूसरों के लिए अपना अब कुछ त्याग दिया। सदा दूसरों के बारे में ही सोचता रहा। करता रहा, खपता रहा, तपता रहा, मिटता रहा। अपने लिए कुछ नहीं चाहा। और मुझे क्या मिला एक नाम "आदमी बेचारा"
       झुंझलाकर  उसने कहा अब
मैं कुछ भी नही सोचूंगा.......तुम सोचना
मैं कुछ भी नही बोलुगां......तुम बोलना
मैं किसी से नही लडूंगा.....तुम लड़ना
मैं कुछ नही चाहूँगा.........तुम चाहना
तुम सपने देखना...........तुम ही उन्हें पूरा करना ।
करता भी तो क्या करता आदमी बेचारा।

        

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4 टिप्पणियाँ

Sudha Devrani ने कहा…
जिसे जीवन में सामजस्य बिठाना नहीं आता उसकी यही दशा होती है तभी तो कहते है जीवन एक कला है इसे कलात्मकता से जीना सीखना होगा।
बेचारे आदमी पर बहुत ही लाजवाब सृजन ।
अनीता सैनी ने कहा…
जीवन में जो संतुलन बैठना सीख गया उसके लिए धरती स्वर्ग है। यथार्थ सृजन।
सच आप पुरुष मानसिक प्रताड़ना का शिकार हो रहा है।
बहुत बढ़िया लिखा शब्द देने जरुरी थे।
सादर
Meena Bhardwaj ने कहा…
आदमी की स्थिति वास्तव में चक्रव्यूह में फँसे अभिमन्यु जैसी है । अति सुन्दर सृजन ।
कविता रावत ने कहा…
चाहे वह पति हो पत्नी यदि बेचारगी की सोच यदि हो तो फिर उसका तो ऊपर वाला ही मालिक होता है