कीचड़ खा कर पलते लोग



कीचड़ खा कर पलते लोग
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मानव व्यवहार में  
अंकुरित हो गए 
बेईमानी के बीज 
मुरझा गई
ईमानदारी की पौध।

स्वार्थ, लालच की जमीन पर
हर जगह पनप रही
गाजर घास की तरह
छल-कपट, झूठ, फरेब की पौध।

ईमानदारी भीड़ में 
ना जाने कहाँ खो गई 
खाने को जनता की 
खरे पसीने की कमाई 

नोचने को, खरोचने को 
खड़े ईमान का ओढ़े नकाब 
जेलों में, न्यायालयों में 
राज सत्ता के गलियारों में, 
गीता, कुरान पर हाथ रख कर
न जानें कितनी लपलपा रही है
झूठ बोलने को लपलपाती जिह्वाऐं।

पहचानों इनके मस्तक की लकीरे
बंगलों में , चमचमाती कारों में 
दिखते इनके उजले तन 
कालिख से पुते मन 
मुंह पर लगा खून
साफ गवाही दे रहा 
ये ऐसे साफ बगुले
कीचड़ के ये फूल है 
जो ईमान बेचकर 
रिश्वत का कीचड़ खा कर पलते है।


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2 टिप्पणियाँ

Sudha Devrani ने कहा…
खरोचने को खड़े
ईमान का ओढ़े नकाब
जेलों में, न्यायालयों में
राज सत्ता के गलियारों में,
गीता, कुरान पर हाथ रख कर
न जानें कितनी लपलपा रही है
झूठ बोलने को लपलपाती जिह्वाऐं।
बहुत सटीक सामयिक.....
लाजवाब सृजन ।
जी सादर धन्यवाद